Tuesday 28 October 2014

(18) माँ ज्वाला देवी ज्वालामुखी शक्तिपीठ

(18) माँ ज्वाला देवी ज्वालामुखी शक्तिपीठ 



माँ ज्वाला शक्तिपीठ कांगड़ा घाटी का प्रसिद्ध मंदिर है । इस स्थान पर माँ सती की ‘‘जीभ’’ गिरी थी और मूर्तियों सिद्धीदा के रूप में देवी मां (अबिका) और अनमाता भैरव के रूप में भगवान शिव हैं । ये लपटे देवी ज्वाला माँ के विभिन्न रूपों की अभिव्यक्ति के रूप में पूजा की जाती है । 


नौ लपटे देवी के नाम पर रखा गया है: महाकाली, मां अन्नपूर्णा, मां चंडी, मां हिंगलाज, विन्ध्यवासिनी, महालक्ष्मी, महा सरस्वती, मां अम्बिका और अंजना देवी लगातार किसी भी ईंधन या सहायता के बिना जल ,एक चटटान से निकलती देखी जा सकती है । सती की जीभ गिरने के स्थान पर ज्वालाजी मंदिर आज स्थित है । सती की जीभ सदा से जल रही पवित्र ज्वाला (पवित्र लौ ) इसका प्रतिनिधित्व करती है ।




 सम्राट अकबर ने आग बुझाने के लिए कई प्रयास किए लेकिन हर बार असफल रहा और अंत में वह भी अलौकिक शक्ति को स्वीकार कर लिया । पांडवों ने इस पवित्र पीठ की खोज की । माता ज्वाला देवी की पूजा अर्चना 3 तरीके से यानि पंचोपचाल, दसोपचाल और सोसोपचाल मुख्य रूप से कर रहे हैं और इसी प्रकार 5 अलग ज्वालाजी आरती माता ज्वाला जी में की जाती हैं । 1. श्रंगार आरती - यह ब्रहमा मुहुरत में सुबह होती है इस आरती में मालपुआ, खोआ, और मिश्री मंा ज्वाला के दरबार में भोग के लिए पेश की जाती है । 2. मंगल आरती - पहली आरती के आंधे घंटे
के अंतर पर की जाती है ।


 इस आरती में पीले चावल और दही मां भगवती को अर्पण किये जाते हैं । 3. मध्यांन काल आरती - यह दोपहर मध्यान काल में की जाती है । इस आरती में चावल, सतरंस दल और मिठाई पेष की जाती है । 4. सांयः काल आरती  - यह आरती सांयः को की जाती है । इस आरती में पूरी, चना और हलवा अर्पण किया जाता है । 5. सैया आरती - अंतिम प्रार्थना के बाद सोने के लिए मां के बिस्तर तैयार करने से पहले की जाती है । यह मां के सोने की आरती   है ।




 यह आरती रात 9 बजे के आसपास शुरू होती है । इसमें दूध , मलाई और मौसमी फल मां ज्वाला देवी के लिए पेशकश की जाती है । भक्तगण मंगलवार और शुक्रवार को मुख्य रूप से पूजा के लिए यहां पहुंचते हैं । भारत के अन्य भागों से चैत्र अश्वनी नवरात्र और श्रावण महीने के समया लाखों में भक्त यहां पहुंचते हैं । 





(17) श्री त्रिपुरमालिनी शक्तिपीठ

(17) श्री  त्रिपुरमालिनी  शक्तिपीठ





 श्री  त्रिपुरमालिनी  शक्तिपीठ पंजाब के जालंधर शहर जो की एक खूबसूरत एवं अपने वस्त्र उत्पादों के लिए भी बहुत प्रसिद्ध है । मां सती का मदिंर का निर्माण बहुत खूबसूरती के साथ किया गया है सामने सरोवर एवं एक विशाल आंगन है जो काले व सफेद संगमरमर से बना है तथा इस मंदिर का सुनहरा गुंबद बहुत प्रभावशाली है । 



कहते हैं कि यहां मां सती के बांए स्तन, गिर गया, कहा जाता है कि फिर बांए स्तन की गिरावट के स्थान पर इस मदिंर का निर्माण किया गया था । यहां मां सती की मूर्ति त्रिमालिनी के रूप में और भगवान शिव भीशन के रूप में पूजे जाते हैं । भगवान शिव का यह मदिंर ललीतेश्वर महादेव मंदिर कहा जाता है । 




त्यौहारों में दुर्गा पूजा काफी प्रसिद्ध है । नवरात्रि जो मार्च या अप्रैल में और दूसरी सितम्बर या अक्टूबर में आती है लोग उपवास रखते हैं एवं इन नौ दिनों में मिटटी से प्राप्त अनाज नहीं ग्रहण करते हैं । साथ ही लोग हर दिन फल, दूध, घर का बना प्रसाद, मिठाई देवी को भेंट कर प्रसाद ग्रहण करते हैं । 





Monday 27 October 2014

(16) हिंगलाज शक्तिपीठ - पाकिस्तान में हिन्दू तीर्थ

(१६) हिंगलाज शक्तिपीठ - पाकिस्तान में हिन्दू तीर्थ






हिंगलाज शक्तिपीठ एक महत्वपूर्ण हिन्दू तीर्थस्थान बलूचिस्तान (पाकिस्तान) में  स्थापित है भगवान शिव के तांडव के बाद सति को ले जाते समय सति का सिर (हिंगगुला) यहां पर गिर गया था   हिंगलाज माता की गुफा मंदिर एक संकीर्ण में स्थित है, बलूचिस्तान की लायरी तहसील जो कंरची से 250 कि.मी. है













एक छोटा सा निराकार पत्थर हिंगलाज माता के रूप मंे पूजा जाता है स्थानीय मुसलमान भी श्रद्धा के साथ हिंगलाज को नानी मंदिर के रूप में मानते हैं तथा उन्हें बीबी नानी कहा जाता है तीर्थयात्रा कोनानी की हजके रूप में मनाया जाता है   




Sunday 26 October 2014

(15).हरसिद्धि मंदिर उज्जैन - शक्तिपीठ

.(15) हरसिद्धि मंदिर उज्जैन - शक्तिपीठ



हरसिद्धि मंदिर शक्ति पीठ के रूप में जाना जाता है । हरसिद्धि मंदिर उज्जैन के मंदिरों के शहर में एक महत्वपूर्ण मंदिर है । यह मंदिर देवी अन्नपूर्णा को समर्पित है जोे गहरे सिंदूरी रंग में रंगी है । देवी अन्नपूर्णा की मूर्ति देवी महालक्ष्मी और देवी सरस्वती की मूर्तियों के बीच विराजमान है ।



श्रीयंत्र शक्ति की शक्ति का प्रतीक है और श्रीयंत्र भी इस मंदिर में प्रतिष्ठित है । पौराणिक कथा के अनुसार ऐसा माना जाता है कि जब भगवान शिव सती के शरीर को ले जा रहे थे, तब उसकी कोहनी इस जगह पर गिरी थी । मंदिर का पुनिर्माण मराठों ने किया अतः मराठी कला दीपकों से सजे हुए दो खंभों पर दिखाई देती है । 



मंदिर के शीर्ष पर एक सुन्दर कलात्मक स्तंभ है इस देवी को स्थानीय लोगों द्वारा बहुत शक्तिशाली माना जाता है । इस मंदिर के परिसर में एक प्राचीन कुँआ है । उज्जैन में हरसिद्धि मंदिर हिन्दू धर्म में शक्तिपीठ में से एक है और वास्तुकला का मराठा शैली का प्रतीक है । देवी के शरीर के अन्य भागों में गिर स्थानों पर जहां भारत में शक्तिपीठों के बाकी का गठन किया है । नवरात्रि पर 15 फुट ऊंचाई के दो दीप स्तंभों को प्रकाशवान किया जाता है । 









Monday 20 October 2014

(14) गुहेश्वरी महामाया शक्तिपीठ

(14)  गुहेश्वरी महामाया शक्तिपीठ




गुहेश्वरी महामाया शक्तिपीठ नेपाल में पशुपतिनाथ मंदिर के पूर्व  में स्थित है यह शक्तिपीठ देवपाटन पर नदी बागमती के दक्षिण पश्चिम तट पर स्थित है । यहां मां सती के घुटने गिरे थे । यहां देवी महामाया और संस्कृत शब्द (गुप्त) और ईश्वरी (देवी) से व्युत्पन्न में गुहेश्वरी के रूप में भगवान शिव की रूप में पूजा जाता है । 


शब्द गुहारूपानी ( भगवान के रूप मानव धारणा से परे है और यह एक रहस्य है ) ललिता सहस्रनाम में बनाया है यह भी गुहेश्वी मंदिर माना जाता है । मंदिर नरसिंह ठाकुर, एक तांत्रिक की मदद से लिचावी अवधि के राजा शंकर देव के शासनकाल के दौरान निर्माण किय गया था । मंदिर बाद में लामबाकरना भटट, एक प्रख्यात की सलाह के साथ 1654 ईसवी में राजा प्रताप मल्ल द्वारा पुनर्निर्मित किया गया ।




 तांत्रिक संस्कार मंदिर में प्रदर्शन कर रहे हैं । मंदिर वास्तुकला भूटानी शिववालय शैली में बनाया प्रार्थना के दौरान प्रयोग की जाने वाले कई संगीत वाद्ययंत्र राजा राणा बहादुर द्वारा प्रस्तुत किए गए । मंदिर में मूर्तियों को सोने और चांदी के बने होेते हैं । त्यौहारों और मेलों का आयोजन नवरात्रि में होता है जिसमें नेपाल के राजा बागमती नदी में एक डुबकी लेता है और गुहेश्वरी मंदिर में देवी की पूजा करता है । 


ऐसा मानना है कि जो लोग इस मंदिर में शादी करते हैं तो सात जन्मों के आत्मा साथी बन जाता है । महिलाएं अपने पति के स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना करती हैं । इस मंदिर में पूजा दुश्मनों पर काबू पाने में मददगार है । गुहेश्वरी मेला नवंबर में आयोजित होता है ।


(13) माँ विश्वेश्वरी गोदावरी तिर शक्तिपीठ - राजमुंदरी

(13)  माँ विश्वेश्वरी गोदावरी तिर शक्तिपीठ - राजमुंदरी




गोदावरी तिर के रूप में प्रसिद्ध मंदिर जहां  मां सती के बाएं गाल गिरा और इस धार्मिक स्.थल पर पूजा की मूर्तियां विश्वेश्वरी या राकिनी या विश्व मातुका कहा जाता है । यह स्थान राजमुंदरी, आंध्रप्रदेश में गोदावरी नदी के तट पर कोटीलिंगेश्वर मंदिर में स्थित है । यह जगह शांति और सौंदर्य  के लिए सुरम्य दृश्य देता है । 



गोदावरी तिर शक्ति पीठ के गोदावरी नदी में श्री चैतन्य महाप्रभु और बालादेव प्रसिद्ध संतों ने स्नान किया । गोदावरी तिर मंदिर में साल में दो बार भक्ति समागम होते हैं एक नवरात्रि मार्च या अप्रैल में और अन्य सितम्बर या अक्टूबर के महीने में ।  नवरात्रि पूर्ण ऊर्जा, विश्वास, समर्पण और भक्ति के साथ मनाया जाता है । नवरा़ि़त्र में लोग उपवास रखते हैं और जमीन ने उगाया कोई भी अनाज फल नहीं खाते हैं ।

Sunday 19 October 2014

(12) गंडकी शक्तिपीठ

(12) गंडकी शक्तिपीठ




गंडकी शक्ति पीठ गंडकी नदी नेपाल जो सबसे पवित्र नदी के तट पर बना है । अदृवतीय इस शक्तिपीठ, नदी में पाया गया कि शालीग्राम पत्थरों की उपस्थित है । इस नदी में डुबकी लेने से सभी पापों का नाश होता है । यहां पर सती का सही गाल गिर गया था । 



यहां मां सती की मूर्ति ‘‘ गंडकी ’’ के रूप में और भगवान शिव भगवान चक्रपानी के रूप में पूजे जाते हैं । गंडकी मंदिर के समारोह नवरात्रि मार्च/अप्रैल और सितम्बर/अक्टूबर में मनाये जाते हैं । नवरात्रि पूर्ण ऊर्जा, विश्वास, समर्पण और भक्ति भाव से मनायी जाती है । शिवरात्रि भी धूमधाम से एवं बहुत उत्साह से मनाते हैं ।



(11) माँ भद्रकाली देवीकूप मंदिर - शक्तिपीठ (थानेसर/कुरूक्षेत्र, हरियाणा)

(11) माँ भद्रकाली देवीकूप मंदिर -  शक्तिपीठ (थानेसर/कुरूक्षेत्र, हरियाणा)



काली माता / भद्रकाली शक्तिपीठ जहां माता सती के दाएं टखने में इस मंदिर के सामने एक कुंए में यहां गिर गया था । प्राचीन शक्ति पीठ भद्रकाली देवी काली के आठ रूपों में से एक है ।














कुरूक्षेत्र का शक्तिपीठ जहां श्रीकृष्ण का मुंडन हुआ था । हरियाणा का एक मात्र शक्तिपीठ कुरूक्षेत्र में है । यह शक्तिपीठ देवी कूप शक्तिपीठ के नाम से जाना जाता है । यँहा देवी सती का दायां टखना गिरा था । भद्रकाली माता के मंदिर में प्रवेश का मुख्य द्वार आसमान से बातें करता मंदिर का ऊंचा गुंबद जहां देवी का विजय पताका लहरा रहा है । 





भक्त दूर से ही इसके गुंबद को देखकर जयकारा लगाने लगते हैं । माता के मंदिर में भक्त बनकर कोई बदमाश नहीं आ जाए इसलिए पुलिसकर्मी लगे रहते हैं । सुरक्षा जांच में । नवरात्र के मौके पर सुरक्षा का विशेष प्रबंध किया जाता है । देवी कूप भद्रकाली माता के मंदिर का भव्य प्रांगण भक्त माता के दर्शनों के लिए पंक्ति में खड़े हैं , माता कब मिलेगा तेरा दिव्य दर्शन । 











नवरात्र के अवसर पर माता के मंदिर को फूलों से सजाया गया है । जिससे मंदिर की शोभा देखकर भक्त आंनद में झूमने लगते हैं । भगवान श्री कृष्ण का मुंडन यहां पर हुआ था । श्री कृष्ण ने माता को घोड़ा भेंट किया था । उस दिन से मनोकामना पूरी करने के लिए माता को घोड़ा भेंट किया जाता है ।



Saturday 18 October 2014

(10) दन्तेश्वरी शक्तिपीठ - दंतेवाड़ा

(10)  दन्तेश्वरी शक्तिपीठ - दंतेवाड़ा 




दन्तेश्वरी शक्तिपीठ छत्तीसगढ जगदलपुर के दंतेवाड़ा में काकतीय शासकों के इष्टदेव के नाम पर है । परंपरागत रूप से वह कुलदेवी की (परिवार देवी) है बस्तर राज्य में ।देवी सती का एक दांत यहां गिर गया था यह एक प्राचीन पौराणिक कथा के अनुसार 14वी सदी में यहां मंदिर बनाया गया था चालुक्य मंदिर वास्तुकला की दक्षिण भारतीय शैली में किंग्स दंतेश्वरी माई की मूर्ति काले पत्थर से बाहर गढे हुए है । मंदिर गर्भ गृह, महा मंडप, मुख्यमंत्री और सभा मंडप के रूप में चार भागों में बांटा गया है । 












दंतेश्वरी मंदिर -दन्तेवाड़ा - एक शक्तिपीठ - यहाँ गिरा था सती का दांत । छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र की हसीन वादियों में स्थित है दंतेवाड़ा । गावों और जंगलों से आदिवासियों दशहरे पर हर साल प्राचीन मूर्ति को मंदिर से बाहर लाकर एक व्यापक जुलूस में शहर के चारों ओर ले जाया जाता है । हजारों में भक्तगण श्रद्धांजलि अर्पित करने इकटठा होते  हैं । बस्तर दशहरा एक लोकप्रिय पर्यटक आकर्षण है । दंतेश्वरी मंदिर शंखिनी और डंकिनी नदीयों के संगम पर स्थित है । दंतेश्वरी देवी को बस्तर क्षेत्र की कुलदेवी का दर्जा प्राप्त है । 



इस मंदिर की एक खासियत यह है कि माता के दर्शन करने के लिए आपको लुंगी या धोति पहनकर की मंदिर में जाना होगा । मंदिर में सिले हुए वस्त्र पहन कर जानें की मनाही है । ऐसा माना जाता है कि माँ दंतेश्वरी मंदिर का निर्माण बस्तर के पहले काकातिया राजा अन्नम देव वारंगल से यहां आए थे । उन्हें दंतेश्वरी मैयया का वरदान मिला था । कहा जाता है कि अन्नम देव को माता ने वर दिया था कि जहां तक वे जांएगे, उनका राज वहां तक फेलेगा । शर्त ये थी कि राजा को पीछे मुड़कर नहीं देखना था और मैयया उनके पीछे-पीछे जंहा तक जाती, वहां तक की जमीन पर उनका राज हो जाता । अन्नम देव के रूकते ही मैयया भी रूक जाने वाली थी ।











अन्नम देव ने चलना शुरू किया और वे कई दिन और रात चलते रहे । वे चलते-चलते शंखिनी और डंकिनी नदियों के संगम पर पहुंचे । यहां उन्होंने नदी पार करने के बाद माता के पीछे आते समय उनकी पायल की आवाल महसूस नहीं की । सो वे वहीं रूक गए और माता के रूक जाने की आंशका से उन्होंने पीदे पलटकर देखा । माता तब नदी पार कर रही थी । राजा के रूकते ही मैयया भी रूक गई और उन्होंने आगे जाने से इनकार कर दिया । दरअसल नदी के जल में डूबे पैरों में बंधी पायल की आवाज पानी के कारण नहीं आ रही थी और राजा इस भ्रम में कि पायल की आवाज नहीं आ रही है, शायद मैया नहीं आ रही है सोचकर पीछे पलट गए । वचन के अनुसार मैयया के लिए राजा ने शंखिनी-डंकिनी नदी के संगम पर एक सुन्दर घर यानि मंदिर बनवा दिया । तब से मैयया वहीं स्ािापित है ।












दंतेश्वरी मंदिर के पास ही शंखिनी और डंकिन नदी के संगम पर माँ दंतेश्वरी के चरणों के चिन्ह मौजूद है और यहां सच्चे मन से की गई मनोकामनाएं अवश्य पूर्ण होती है । दंतेवाड़ा में माँ दंतेश्वरी की षट्भुजी वाले काले ग्रेनाइट की मूर्ति अद्वितीय है । छह भुजाओं में दाएं हाथ में शंख, खड्ग , त्रिशुल और बांए हाथ में घंटी, पदय और राक्षस के बाल मांई धारण किए हुए है । यह मूर्ति नक्काशीयुक्त है और ऊपरी भाग में नरसिंह अवतार का स्वरूप है । माई के सिर के ऊपर छत्र है, जो चांदी से निर्मित है । वस़़्त्र आभूषण से अंलकृत है । द्वार पर दो द्वारपाल दाएं -बाएं खड़े हैं जा चार हाथ युक्त हैं । बाएं हाथ सर्प और दांए हाथ गदा लिए द्वारपाल वरद मुद्रा में हैं ।



 इक्कीस स्तम्भों से युक्त सिंह द्वार के पूर्व दिशा में दो सिंह विराजमान जो काले पत्थर के हैं । यहां भगवान गणेश, विष्णु,शिव आदि की प्रतिमाएं विभिन्न स्थानों में प्रस्थापित हैं । मंदिर के गर्भ गृह में सिले हुए वस्त्र पहनकर प्रवेश प्रतिबंधित है । मंदिर के मुख्य द्वार के सामने पर्वतीयकालीन गरूड़ स्तम्भ से अडढवस्थित है । बत्तीस काष्ठडढ स्तम्भों और खपरैल की छत वाले महामण्डप मंदिर के प्रवेश के सिंह द्वार का यह मंदिर वास्तुकला का अनुपम उदाहरण है । मांई जी का प्रतिदिन श्रृंगार के साथ ही मंगल आरती की जाती है । 






फाल्गुन में होता है मड़ई आयोजन जिसमें होली से दस दिन पूर्व यहां फाल्गुन मड़ई का आयोजन होता है । मांई की डोली के साथ ही फाल्गुन नवमीं, दशमी, एकादशी और द्वादशी को लमहा मार, कोड़ही मार, चीतल मार और गौर मार की रस्म होती है । मंडई के अंतिम सामूहिम नृत्य में सैंकड़ों युवक-युवती शामिल होते हैं और रात भर इसका आंन्द लेते हैं । फाल्गुन मड़ई में दंतेश्वरी मंदिर में बस्तर अंचल के लाखों लोगों की भागीदारी होती है ।