Saturday 31 May 2014

ग्लेडियोलस - नाजुक, सुन्दर, लोकप्रिय व व्यवसायिक फूल

ग्लेडियोलस - नाजुक, सुन्दर, लोकप्रिय व व्यवसायिक फूल

ग्लेडियोलस एक बहुत ही सुन्दर फूल है जो सबसे ज्यादा लोकप्रिय फूलों में से एक  है । इसके पौधो की ऊंचाई 2 से 8 फीट तक होती है । ग्लेडियोलस फूलों के रंग और आकार की एक बड़ी रेंज  है । एक पौधे की डंडी में 30 तक फूल लगते है जो या तो एक ही रंग या फिर दो या तीन रंग के सम्मिश्रण में होते हैं । भारत में ग्लेडियोलस सबसे लोकप्रिय व्यावसायिक कट लावर फसल बन गयी है । ग्लेडियोलस की मांग दिन प्रति दिन बढ़ रही है क्योंकि बहुरंगी किस्मों, अलग अलग रंग, आकार और फूल स्पाइक के लंबे रख गुणवत्ता में बदलती घरेलू बाजार में इस फूल की खेती बहुत लोकप्रिय हो गयी है । ग्लेडियोलस भारत में मैदानी और पहाड़ी इलाकों की जलवायु में एक विस्तृत श्रंृखला में उगाया जा रहा है । ग्लेडियोलस एक बारहमासी बल्बनुमा पौधों फूल परितारिका परिवार के सदस्य हैं इसे ‘‘लिली तलवार’’ भी कहा जाता है । ये फूल एशिया, यूरोप, दक्षिण अफ्रीका और उष्णकटिवंधीय अफ्रीका में पाया जाता है ।  इसके फूल गुलाबी, रंग या विषम, सफेद निशान या लाल को क्रीम या नारंगी के लिए सफेद रंग के साथ प्रकाश बैंगनी है । ग्लेडियोलस फूल अगस्त में खिलते हैं । भूमध्य और ब्रिटिश ग्लेडियोलस फूल शरीरिक रोगों के इलाज के लिए इस्तेमाल किया जाता है ।
ग्लेडियोलस किस्मों में दोस्ती, स्पिक, अवधि, मंसूर लाल, डा. लेमिंग, पीटर नाशपाती और सफेद दोस्ती । भारत में विकसित किस्मों में सपना,पूनम, नजराना, अप्सरा, अग्निरेखा, मयूर, सुचि़त्रा,मनमोहन, मनोहर, मुक्ता, अर्चना, अरूण और शोभा हैं । ग्लेडियोलस अपने सुन्दर फूल स्पाइक (डंडी) के लिए जाना जाता है । इसके शानदार रंग, आकर्षक अलग आकार, उत्कृष्ट एवं गुणवत्ता के लिए मशहूर हैं । ग्लेडियोलस  दोनों उद्यान एवं फूलों की सजावट के लिए आदर्श हैं । ग्लेडियोलस गुलदस्ते के लिए एक कट लावर, बेड के लिए बहुत अच्छा है । ग्लेडियोलस भी तलवार लिली के रूप में जाना जाता है । इस फूल की 260 प्रजातियां है । औषधी के रूप में यह दस्त और पेट की गड़बड़ी के उपचार में पारंपरिक चिकित्सा में इस्तेमाल किया जाता है ।











   

डेहलिया - बड़ा खूबसूरत फूल

डेहलिया - बड़ा खूबसूरत फूल

डेहलिया एक बारहमासी फूलों का पौधा जिसका मूल स्थान मेक्सिको है पर यह मध्य अमेरिका, कोलंबिया में भी उगाया जाता है । डेहलिया मेक्सिको का राष्ट्रीय फूल है । डेहलिया फूल विभिन्न रंगों का होता है पर डेहलिया के रंग लैवोनांइडस जैसे एंथोसायनिन , लैवोन और लैवोनोल्स जैसे यौगिक की सांद्रता पर आधारित होते   हैं । डेहलिया में दुलर्भ काला डेहलिया देखने में कम ही मिलता है डेहलिया के काले लाल होने की वजह उसमें एंथोसायनिन की मात्रा अधिक होती है, यौगिक लैवन की सांद्रता घटने से एंथोसायनिन की मात्रा बढ़ जाती है । डेहलिया फूल की पंखुड़िया देखने में बहुत बड़ी लगती हैं और इसे उगाने के लिए अधिक पानी की आवश्यकता नहीं होती है । शुष्क और गर्म जलवायु इसकी खेती में बाधक मानी गई है । विदेशों में डेहलिया के फूल कोको को स्वादिष्ट बनाने का मसाला बनाने में उपयोग किया जाता है । 
डेहलिया के नाम और उनके रंग: - एसी सीज - नारंगी, एतारा मुकुट-बैंगनी सफेद, एतारा रूफस-लाल, आला मोड-नारंगी सफेद, अली ओप-लाल, ट्रिम्प-सफेद, एलोवे कैंडी-गुलाबी सफेद, एलपेन करूब-सफेद, कामुक- नारंगी लाल, एपल ब्लासम-क्रीम ब्लश गुलाब, अरब नाइट-काला लाल, अयूवेन्स वायलेट- डार्क लेवेंडर, भामा माँ-चमकीला गुलाबी, बारबेरी डोमिनियन- हल्का नारंगी गुलाबी ब्लेंड, नाई की दुकान-सफेद लाल, एक खेल हो-नारंगी लाल सफेद, बीकन व्हाइट-सफेद, बिग चेकर्स/रयान सी-लाल रंग सफेद, ललान्डेफ के बिशप-लाल, काले साटन-काला, लाल, मिश्रित सौंदर्य- मजेंटा व्हाइट,बो डी ओ-पीला, ब्रेकन एस्ट्रा-लाल पीला, ब्रैंडन जेम्स-नारंगी सफेद, ब्रायन आर-लेवेंडर, फातिमा-गुलाबी, पर्व पतन- पीला नारंगी , घुंघराला लिजी- बैंगनी ।
डेहलिया कई रूपों में से एक फूल है । डेहलिया फूल डिस्क और रे लोरेटस रूपों में पाये जाते हैं । डेहलिया के वर्गीकरण में सजावटी, कैक्टस, अर्द्ध कैक्टस, वाटर लिली, सैनिकों की टोपी का तुर्रा या फुँदना, गैंद, कोलेरेट, बौना, और विविध आदि हैं । डेहलिया हमेशा से उज्ज्वल और सुन्दर फूल रहे हैं जो कि गुलदस्ते के लिए अधिक उपयोगी हैं । डेहलिया की रंग विविधता के कारण शादी विवाह समारोह में इनकी उपलब्धता सुनिश्चित करनी होती है ।












मकड़ी

मकड़ी

मकड़ी आथ्र्रोपोडा संघ का एक प्राणी है यह एक प्रकार का कीट है । इसका शरीर शिरोवक्ष और उदर में बंटा रहता है तथा इसकी 40000 प्रजातियां पायी जाती हैं । इसके सिरोवक्ष से चार जोड़े पैर लगे रहते हैं इसके पेट में एक थैली होती है जिससे एक चिपचिपा पदार्थ निकलता है जिससे यह जाल बुनती है । यहं मांसाहारी जंतु  है । जाल में कीड़े मकोड़ों को फंसाकर खाता है । .मकड़ी दिखती तो छोटी सी है लेकिन इसका जहर बहुत खतरनाक होता है । ठंडी और अंधेरी जगहों पर पाई जाने वाली मकड़ी बहुत ही जहरीली होती है । मकड़ी के काटने पर ठंड लगना और बुखार के साथ उल्टी होने की शिकायत देखी गई है । जिसके बाद मरीज धीरे धीरे कमजोर होता जाता है । हडिडयों में दर्द के साथ शरीर टूटता है और देखते देखते मरीज की मौत हो जाती है ।
मकड़ी के जहर से वियाग्रा: वैज्ञानिकों का कहना है कि मकड़ी की एक प्रजाति पुरूषों की कामवासना बढ़ाने में सहायक हो सकती है । मकड़ियों के जहर में उपस्थित टाॅक्सिन पुरूष जननांग में तनाव नही आने की बीमारी (इरेक्टाइल डिसफंक्शन) के इलाज में मददगार हो सकता है । आम्रड स्पाइडर, बनाना स्पाइडर या फोनेयुट्रिया निग्रिवंेटर के नाम प्रसिद्ध आठ टांगों वाली यह मकड़ी दक्षिण एवं मध्य अमेरिका में पाई जाती है ।
मकड़ी जो चिली में पायी जाने मकड़ी का इस्तेमाल दिल की बिमारी के इलाज में हो सकता है और फसलों में पाये जाने वाले कुछ कीड़ों को मारने के लिये भी इनका उपयोग होता है ।
ब्रिटेन में मकड़ी के छूने से महिला की जान पर बन आई: एक महिला को एक छोटी मकड़ी छूकर चली गई इसके बाद उनकी बांह में सूजन आने लगी और रक्तप्रवाह बंद हो गया ।  डाॅ. ने एंटीबायोटिक और पैरासिटामाल दवा देने के बाद भी स्थिति नहीं सुधरी और शरीर में जहर फेल रहा है जिससे उनकी नसें और मांसपेशियां गल रही है फिर शल्यचिकित्सा करके मांस निकालकर उन्हें बचाया गया । मकड़ी से डरने वाले लोगों को मकड़ी ज्यादा विशाल दिखाई देगी ।
शकुन शास्त्र में और बड़े बुजुर्गों का कहना है कि घर में मकड़ी का जाला  नहीं होना चाहिए इससे नकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है इससे जीवन मंे कई प्रकार की उलक्षने आने लगती हैं । लेकिन मान्यता यह भी है कि मकड़ी का जाला आपकी किस्मत का ताला भी खोल सकता है लेकिन इसकी शर्त यह है कि मकड़ी के जाले में आपको अपने हस्ताक्षर या नाम की आकृति दिख जाए । घर से तुरंत साफ कर देना चाहिए मकड़ी के जाले: जिस घर में स्वच्छता रहती है वहीं देवी-देवताओं का वास होता है । घर में जाले होना अशुभ माना जाता है । इसके पीछे वैज्ञानिक और धार्मिक कारण मौजूद है । मकड़ी के जाले की सरंचना कुछ ऐसी होती है कि उसमें नकारात्मक ऊर्जा एकत्रित हो जाती है । इसलिए घर के जिस भी कोने में मकड़ी के जाले होते हैं वह कोना या हिस्सा नकारात्मक ऊर्जा से भर जाता है । इस कारण घर में कलह, बीमारियां व अन्य कई समस्याएं पैदा हो जाती है । मकड़ी के एक जाले में असंख्य सूक्ष्मजीव रहते हैं जो कि हमारे स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाते   हैं । नकारात्मक ऊर्जा के कारण घर का माहौल इतना अशांत हो जाता है कि व्यक्ति चाहकर भी अपने काम को मन लगाकर नहीं कर पाता है । इसलिए मकड़ी के जालों को अशुभ माना जाता है । क्यों लगता है मकड़ी से डर: बड़े बड़े जांबाज भी कई बार मकड़ी जैसे छोटे कीड़े माकोड़ों से डर जाते हैं ।
फाॅल्स विडो - एक सिक्के के आकार की मकड़ी है और 12 सबसे खतरनाक मकड़ियों की प्रजातियों में से एक है । अगर यह मकड़ी किसी को काट ले तो उसे सूजन, सीने में दर्द, अंगुलियों में सिहरन हो सकती है लेकिन यह जहर की मात्रा पर निर्भर करता है ।
धन प्राप्ति में बाधक हैं मकड़ी के जाले - मकड़ी के जाले से भवन में निवास कत्र्ता की आर्थिक उन्नति बाधित होती है आर्थिक अभाव होने लगता है स्वास्थ्य से संबंधी परेशानियां होने की संभावनाएं बढ़ जाती है ।
मकड़ियां हमारे पर्यावरण में कीट-पतंगों की संख्या को नियंख्ति रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती ही हैं साथ ही इनके द्वारा उत्पादित बारीक रेशमी तंतुओं का उपयोग आॅप्टिकल उपकरणों के क्राॅस हेयर्स के निर्माण में किया जाता है । इसके अतिरिक्त मकड़ियों का उपयोग कुछ औषधियों के परीक्षण में भी किया जाता है , कारण - इन औषधियों का प्रभाव इनके द्वारा उत्पादित रेशमी तंतुओं तथा उनसे निर्मित जाल की गुणवत्ता पर पड़ता है । मकड़ियों दक्ष शिकारी होती हैं । इसके लिए ये तरह तरह के हथकंडे अपनाती है । इनके शिकार अधिकांशतः छोटे मोटे कीट पतंगे होते हैं । कभी ये उनके पीछे दौड़ती हैं तो कभी घात लगा कर उनका इंतजार भी करती है । लेकिन अधिकांश प्रजातियां रेशमी तंतुओं द्वारा विशिष्ट प्रकार के जाल का निर्माण कर शिकार को फसानं में यकीन रखती है । फंसे शिकार को अपने विष-डंक से मार डालती है और फिर उसके चारों ओर पाचक-रस का स्त्राव कर उन्हें बाहर से ही पचाती है । इस प्रकार के बाहय  पाचन के फलस्वरूप् निर्मित पोषक रस को ही ये चूस सकती है क्योंकि ये ठोस भोजन नहीं ग्रहण कर सकती है । मकड़ी के उदर में बहुतेरी रेशम उत्पादक ग्रंथियां होती हैं जिनमें तरल फाइबर्स प्रोटीन्स के रूप में रेशम का उत्पादन होता रहता है । एक प्रजाति में सातों प्रकार की ग्रंथियां  नहीं पाई जाती । रेशम ग्रंथियों से तरल प्रोटीन्स के रूप में निकला रेशम जब इन नलिकाओं से गुजरता है तो पाॅलीमराइज हो कर ठोस रेशम के तंतु में परिवर्तित हो जाता है । मकड़ी के काटे हुए स्थान पर नींबू के रस में नीम के पत्तों का रस व बेसन मिलाकर मलने से मकड़ी का विष नहीं चढ़ता है ।
मकड़ी के जाले अशुभ क्यों माने जाते हैं: मकड़ी के जालों को दरिद्रता की निशानी माना जाता है । जहां मकड़ी के जाले जमंे होते हैं । वहां बुरी आत्माओं का निवास होता है । अक्सर लोगों को आपने कहते सुना होगा कि घर में मकड़ी के जाले नहीं रहना चाहिए । ये बहुत अशुभ होते हैं । जिस घर में मकड़ी के जाले होते हैं उसे बरबाद कर देते हैं । ये कोई अंधविश्वास नहीं है । 
मकड़ी के काटने पर क्या इलाज करें ? - मकड़ी के काटने पर दर्दनाक या खुजली हो सकती है । सबसे पहले आप 1. मकड़ी को पहचानें - अधिकांश मकड़िया खतरनाक नहीं होती हैं । जिस जगह मकड़ी ने काटा है उसे साबुन और पानी से धो लें यह इस घाव को साफ और संक्रमण को रोकने में मदद करेगा । एक आइस पैक से धीरे धीरे सेक करें । यह काटने के दर्द को करने एवं सूजन को कम करता है । साथ ही एस्पिरिन या टाइनोल नामक दवाई दे सकते हैं । ज्यादा परेशानी होने पर डाॅक्टर से सलाह लें । अगर निम्न लिखित लक्षण दिखते हैं जैसे सांस लेने में कठिनाई , मतली, मांसपेशियों की एठन , घावों , गले में कसावट, पसीना आना और बेहोशी होने जैसे लक्षण ।
मकड़ी काटने के लक्षण - त्वचा का लाल हो जाना और हल्की जलन व खुजली होना, डंक वाले स्थान पर मामूली सूजन या दर्द, त्वचा पर रेशेज हो जाना, सांस उखड़ना, जीभ या गले का सूज जाना, ठोढ़ी पर छता बन जाना, चक्कर आना और उल्टी होना, छाती में दर्द या जकड़न , पेट में दर्द या मरोड़ होना, निगलने में समस्या होना आदिं हों तो तुरंत डाॅ. को दिखाएं । घरेलू उपाय में खाने का सोडे में पानी मिला कर पेस्ट बना ले तथा काटे स्थान पर लगाएं । कोई क्रीम जिसमें एंटीहिस्टामिन हो लगाने से सूजन कम हो जाती है । कुछ न हो तो एस्प्रिन को पीस का डंक वाले स्थान पर लगायें । कुछ लोग पपीते और प्याज को काट कर भी प्रभावित क्षेत्र पर लगाते हैं क्योंकि इनमें पाए जाने वाले एंजाइम विष को निष्प्रभावी कर देते हैं । प्रभावित क्षेत्र को खुजलाएं नहीं , क्योंकि इससे त्वचा कट सकती है । शान्त रहने का प्रयास करें क्योंकि शरीरिक गति विष के फेला सकती हैं इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि मकड़ी के जालों की संरचना कुछ ऐसी होती है उसमें नकारात्मक ऊर्जा एकत्रित हो जाती है । इसलिए घर के जिस भी कोने में मकड़ी के जाले होते हैं वह कोना नकारात्मक ऊर्जा से भर जाता है जिससे घर में कलह, बीमारियां व अन्य कई समस्याएं हमारे जीवन को घेरने लगती हैं , साथ ही मकड़ी के एक जाले असंख्य सूक्ष्मजीव रहते हैं जो कि हमारे स्वास्थ्य को नुकसान पंहुचाते हैं इसलिए कहा जाता है कि घर में मकड़ी के जाले होते हैं तो घर की सुख-समृद्धि का नाश होने लगता है क्योंकि नकारात्मक ऊर्जाओं के कारण घर का माहौल इतना अशांत हो जाता है कि व्यक्ति चाहकर भी अपने काम को मन लगाकर नहीं कर पाता है इसलिए मकड़ी के जालों को अशुभ माना जाता है ।  








        


Friday 30 May 2014

कस्तूरी मृग - संकटग्रस्त प्रजाति

कस्तूरी मृग - संकटग्रस्त प्रजाति

कस्तूरी मृग प्रकृति के सुन्दरतम जीवों में से एक है इसका वैज्ञानिक नाम ‘‘ मास्कम क्राइसोगौस्टर ’’ है। भारत में कस्तूरी मृग, जो कि एक लुप्तप्राय जीव है, कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तरांचल के केदारनाथ, फूलों की घाटी, हरसिल घाटी तथा गोविन्द वन्य जीव विहार एवं सिक्किम के कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित रह गया है । इसे हिमालयन मस्क डियर के नाम से भी जाना जाता है । कस्तूरी मृग का नाम इसलिए पड़ा कि इसकी नाभि से कस्तूरी निकलती है । कस्तूरी अपनी सुगंध के लिए प्रसिद्ध है तथा दवाइयों में प्रयुक्त होती है । इस मृग की नाभि में अप्रतिम सुगन्धि वाली कस्तूरी होती है, जिसमें भरा हुआ गाढ़ा तरल पदार्थ अत्यन्त सुगन्धित होता है । कस्तुरी ही इस मृग की विशिष्टता प्रदान करती है । हिमालय क्षेत्र में यह देवदार, फर, भोजपत्र एवं बुरांस के वनों में लगभग 3600 मी. से 4400 मीटर की उँचाई पर पाया जाता है । कस्तूरी मृग पहाड़ी जंगलों की चटटानों के दर्रों और खोहों में रहता है साधारणतया यह अपने निवासस्थान को कड़े शीतकाल में भी नहीं छोड़ता । चरने के लिए यह मृग दूर से दरू जाकर भी अंत में अपनी रहने की गुहा में लौट आता है । कंधे पर इसकी ऊँचाई 40 से 50 से.मी. होती है । इसका रंग भूरा होता है और उस पर काले काले-पीले धब्बे होते हैं । इस मृग के सींग नहीं होते है तथा उसके स्थान पर नर के दो पैने दाँत जबड़ों से बाहर निकले रहते है तथा उसके स्थान पर नर के दो पैने दाँत जबड़ों से बाहर निकले रहते हैं । जिनका उपयोग यह आत्मरक्षा और जड़ी-बूटियों को खोदने में करता है । इस मृग का शरीर घने बालों से ढ़का रहता है । मादा वर्ष में एक या दो बार 1-2 शावकों को जन्म देती है । इसमें कस्तूरी एक साल की आयु के बाद ही बनती है । एक मृग में सामानयतः 30 से 45 ग्राम तक कस्तूरी पायी जाती है । नर मृग के निचले भाग में जननांग के समीप एक ग्रंथि से एक रस स्त्रावित होता है जो चमड़ी के नीचे स्थित एक थैलीनुमा स्थान पर एक्त्रित होता रहता है । इस थैली से ही कस्तूरी प्राप्त होती है । कस्तूरी से बनने वाला इत्र अपनी सुगन्ध के लिये प्रसिद्ध है । औषधि उद्योग में कस्तूरी को दमा, मिरगी, क्राकायुरिस, निमोनिया, टाइफाइड और हृदय रोग के लिये बनाई जाने वाली दवाइयों में प्रयोग किया जाता है । इसके सूंघने की शक्ति बहुत तेज होती है । इसी कारण किसी भी खतरे को भांप कर यह बहुत तेजी से दौड़ पड़ता है लेकिन दौड़ते समय 40-50 मीटर आगे जाकर पीछे मुड़कर देखने की आदत ही इसके जीवन के लिए खतरा बन जाती है । कस्तूरी मृग एक छोटे मृग के समान नाटी बनावट का होता है और इनके पिछले पैर आगे के पैरों से अधिक लम्बे होते हैं । इनकी लम्बाई 80-100 से.मी. तक होती है, कन्धे पर 50-70 से.मी. और शरीरिक भार 7 से 17 किलो तक होता है । कस्तूरी मृग के पैर कठिन भूभाग में चढ़ाई के लिए अनुकूल होते हैं 
कस्तूरी कुंड़लि बसैं, मृग ढूंढ़े बब माहिं । से घटि घटि राम हैं दुनिया देखे नाहिँ
 (कस्तूरी की गंध, खुद में सहेजे भ्रमित, भटक रहा था कस्तूरी मृग । आनन्द का सागर खुद मैं समेटे कदम भटक रहें थे  )
कस्तूरी - एक बहुत प्रसिद्ध और उत्कृष्ट सुगंधवाला पदार्थ जिसकी तीक्ष्ण गंध होती है जो नर कस्तूरी मृग से प्राप्त होती है और इस पदार्थ को प्राचीन काल से सुगंधित द्रव्य /इत्र तथा औषध बनाने के लिए एक लोकप्रिय रासायनिक पदार्थ के रूप में  इस्तेमाल किया जाता रहा है और दुनिया भर के सबसे मंहगे पशु उत्पादों में से एक है । कस्तूरी की विशेष गंध के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार जैविक यौगिक म्स्कोने है । कस्तूरी का प्रयोग सौन्दर्य प्रसाधन एवं दवाइयों को बनाने में किया जाता है । ग्यारह से अधिक औषधियों में काम आने वाली और अपनी बेमिसाल खुशबू से अमीरों की शान समझी जाने वाली सोने से भी महँगी कस्तूरी की मांग अब भी अन्त्ररास्त्रिया बाजार में बनी हुई है । एक मृग में लगभग 30 से 45 ग्राम तक कस्तूरी पाई जाती है । कस्तूरी चाॅकलेट रंग की होती है जो एक थैली के अंदर द्रव रूप में पायी जाती है । इसे निकाल कर सुखाकर इस्तेमाल किया जाता है । कस्तूरी मृग से मिलने वाले कस्तूरी की अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में कीमत लगभग 30 लाख रूपया प्रतिकिलो है । जिसके कारण इसका अवैध शिकार किया जा रहा है ।  चीन 200 किलो के लगभग कस्तूरी का निर्यात करता है । आयुर्वेद में कस्तूरी से टी.बी., मिर्गी, हृदय संबंधी बिमारियां, आर्थराइटिस जैसी कई बिमारियों का इलाज किया जा सकता है । आयुर्वेद के अलावा यूनानी और तिब्बती औषधी विज्ञान में भी कस्तूरी का इस्तेमाल बहुत ज्यादा किया जाता है । इसके अलावा इससे बनने वाली परफयूम के लिये भी इसकी बहुत मांग है
संरक्षण - दुर्लभ कस्तूरी मृग का अस्तित्व खतरे में है ।  इसके संरक्षण के सरकारी प्रयास धराशायी हो रहे हैं । कस्तूरी पाने के लिए इनकी हत्याएं और घातक बीमारियों के चलते इनका जीवन संकट में है । हत्यारे इन्हें खोज ही लेते हैं और निमोनिया, सर्पदंश, चारा न चबा पाना, अर्जीण, हृदयाघात, टाक्सीमिया, सेप्टिक, मृत बच्चा पैदा होना या मादा का अपने बच्चे को दूध न देना, सैमिक शाॅक, गेस्ट्रो एंटीराइटिस और अपच जैसी घातक बीमारियां इन्हें घेरे रहती हैं । कस्तूरी मृगों की अधिकांश मौतें बरसात में होती हैं । ग्लोबल वार्मिंग के कारण वातावरण भी इनके अनुकूल नहीं रहा है क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग के कारण यहां का प्रजनन एवं वैज्ञानिक अनुसंधान कस्तूरी मृगों के लिए अनुकूल नहीं रहा है । कस्तूरी मृग संरक्षण के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने  वन्य जीव प्रभाग के अंतर्गत ‘‘ कस्तूरी मृग विहार ’’ की स्थापना की । इसके साथ ही ‘‘ कस्तूरी मृग प्रजनन केन्द्र ’’ काँचुला खर्क ’’ स्थापित किया गया और पिथौरागढ़ जिले में ‘‘ अस्कोट कस्तूरी अभयारण्य ’’ की स्थापना की गयी । जैसा की हम जानते हैं कि कस्तूरी सिर्फ नर मंे ही पायी जाती है जबकि इसके लिये मादा मृगों का भी शिकार किया जाता है । जिस कारण इनकी संख्या में बहुत ज्यादा कमी आ गयी है । कस्तूरी निकालने के लिये इन जानवरों का शिकार करना बिल्कुल भी जरूरी नहीं है क्योंकि कुछ आसान तकनीकों का इस्तेमाल करके इनसे कस्तूरी को आसानी से बिना मारे निकाला जा सकता है । भारत सरकार ने भी वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट के तहत इसके शिकार को गैरकानूनी घोषित कर दिया है । यदि अभी भी कस्तूरी मृग को बचाने के प्रयास गंभीरता से नहीं किये गये तो जल्द ही यह पशु शायद सिर्फ तस्वीरों में ही नजर आयेगा । जंगलों में कस्तूरी, लता कस्तूरी, जवादिया ये सब लता कस्तूरी के नाम हैं । इसके दानों में कस्तूरी जैसी ही खुशबू होती है । इसके पसीने की गन्ध को दूर किया जा सकता है ।





डायबिटीज - (मधुमेह) - कारण , लक्षण व बचाव

डायबिटीज - (मधुमेह) - कारण , लक्षण व बचाव 

भारत में डायबिटीज रोगियों की संख्या में चिंताजनक वृद्धि हुई है जिसकी वजह आधुनिक जीवन शैली और आहार में अनियमितता है । यह दीर्घकालीन रोग एक धीमी मौत की तरह रोगी के गुर्दों को नष्ट कर देता है एवं हृदय रोग, तात्रिंकाओं की बीमारियां ,अंधापन और गैंगरीन भी इसी रोग की देन है । ज्यादातर लोग टाइप 2 डायबिटीज से पीड़ित हैं जिसकी वजह है मोटापा, चलने-फिरने और कसरत की कमी । डायबिटीज का कोई स्थायी इलाज नहीं है परन्तु जीवन शैली में बदलाव, शिक्षा तथा खान-पान की आदतों में सुधार द्वारा इस रोग को पूरी तरह नियंत्रित किया जा सकता है । स्वास्थ्य के प्रति लापरवाही तथा अशिक्षा ही डायबिटीज का प्रमुख कारण है । यदि रोग बढ़ जाए तो भी एलौपेथी तथा आयुवैदिक दवाओं, इंसुलिन व जीवन शैली में बदलाव द्वारा रोग पर काबू पाया जा सकता है । डायबिटीज जो कि हाइपरग्लाइसीमिया, हाई शुगर, हाई ग्लूकोज, मधुमेह, ग्लूकोज इनटोलरेंस नाम से भी जाना जाता है । इस रोग में ग्लोकोज का स्तर बढ़ जाता है तथा शरीर की कोशिकाएं शर्करा का उपयोग नहीं कर पाती हैं । यह रोग ‘‘ इन्सुलिन’’ नामक हार्मोन की कमी से होता है जो कि शरीर की पैन्क्रीयास ग्रन्थि से निकलता है ।
डायबिटीज के प्रकार - डायबिटीज मुख्य रूप से 3 प्रकार की होती है पहली टाइप 1 डायबिटीज, दूसरी टाइप 2 डायबिटीज और गैस्टेशनल डायबिटीज
(1) .टाइप 1 डायबिटीज - आमतौर में यह बीमारी मुख्यतः बचपन या युवावस्था (12 से 25 साल की उम्र) में होती है । वायरल संक्रमण से पैन्क्रियाज के बीटा कोशिकाएं पूर्णतः नष्ट हो जाती हैं जिसके कारण इन्सुलिन की आवश्यक मात्रा उत्पन्न नही कर पाते हैं इसलिए इसकी आवश्यकता को पूरा करने के लिए इंसुलिन लेना आवश्यक हो जाता है । इसके मरीज बहुत पतले होते हैं । भारत में लगभग 1 से 2 प्रतिशत टाइप 1 डायबिटीज के रोगी पाये जाते हैं ।
(2) .टाइप 2 डायबिटीज - विश्व में ज्यादरतर लोग टाइप 2 डायबिटीज रोग से पीड़ित है जिसकी वजह मोटापा है । लगभग 95 से 98 प्रतिशत भारतीयों में टाइप 2 डायबिटीज के पाया जाता है जो कि 40 वर्ष की उम्र के आसपास शुरू होता है । इस तरह के लोग मोटे होते हैं और ज्यादातर उनका पेट निकला होता है उनका पारिवारिक इतिहास (अनुंवाशकीय) होता है । उनका रोग धीरे धीरे बढ़ता है और काफी लम्बे समय तक लक्षण दिखाई नहीं देते हैं । इस टाइप की डायबिटीज में शुरू में इंसुलिन का उत्पादन ठीक रहता है पर कुछ समय बाद इंसुलिन की कमी होने से मरीज डायबिटीज का रोगी बन जाता है तब शर्करा निंयत्रित करने के लिए दवाएं लेनी शुरू करनी पड़ती हैं । टाइप 2 डायबिटीज कभी खत्म ना होने वाली बिमारी है ।
(3) गेस्टेशनल डायबिटीज - महिलाओं के गर्भवती होने के दौरान उसका रक्त शर्करा स्तर सामान्य से बढ़ा होना गेस्टेशनल डायबिटीज बतलाती है । गर्भावस्था में होने वाले हार्मोन परिवर्तन इन्सुलिन के कार्य को प्रभावित करते हैं और ये रक्त शर्करा बढ़ाते हैं इसके लिए ग्लूकोज टालरेन्स टेस्ट करवायें । सभी महिलाओं केा 12 वे एवं 24-28 हफते में यह टेस्ट करवाना चाहिए ।
डायबिटीज के शुरूआती लक्षणों को पहचाने - आज डायबिटीज एक आम समस्या बनती जा रही है कई लोगों में यह बीमारी शुरू हो जाती है पर उन्हें पता ही नहीं चल पाता इसलिए यह बहुत जरूरी है कि आप इस बीमारी के लक्षणों को पहचाना सीख लें - थकान महसूस होना, लगातार पेशाब लगना और अत्याधिक प्यास लगना, आंखें कम जोर होना जिसमें किसी भी वस्तु को देखने के लिए उसे आंखों पर जोर डालना पड़ता है, अचानक कम होना, घाव का जल्दी न भरना, तबियत खराब रहना इसमें शरीर में किसी तरह का संक्रमण जल्दी से ठीक न होना, यह आनुवांशकीय हो सकता यदि आपके परिवार में किसी अन्य सदस्य को भी डायबिटीज हो चुका हो, सावधान हो जाने की जरूरत है ।
पुरूषों में डायबिटीज के लक्षण - बार बार पेशाब आना, बहुत ज्यादा प्यास लगना, बहुत पानी पीने के बाद भी गला सूखना, खाना खाने के बाद भी भूख लगना, हर समय कमजोरी और थकान की शिकायत होना, मितली होना और कभी कभी उल्टी होना, हाथ-पैर में अकड़न और शरीर में झंझनाहट होना, आंखों में धुंधलापन होना, त्वचा या मूत्रमार्ग में संक्रमण, त्वचा में रूखापन आना, चिड़चिड़ापन, सिरदर्द, शरीर का तापक्रम कम होना, मांसपेशियों में दर्द  और वजन कम होना इत्यादि ।
महिलाओं में डायबिटीज के लक्षण - अत्यधिक प्यास लगना, बार-बार पेशाब आना, भूख में वृद्धि, अत्याधिक थकान, वजन में कमी, धुंधला विजन, धीरे धीरे घाव का भरना, जननांग में खुजली या नियमित चिड़िया , महिलाओं में कम उम्र में डायबिटीज का खतरा रहता है ।
 डायबिटीज रोग के कारण - डायबिटीज का प्रमुख कारण है पैन्क्रीयास ग्रन्थि की विकृति हो जो कि आहार-विहार की गड़बड़ी के कारण उत्पन्न होती है, आहार में मीठा, अम्ल और लवण रसों की अत्यधिक सेवन, आराम तलब जीवन व्यतीत करने से तथा व्यायाम एवं परिश्रम न करने से, अधिक चिंता एवं उद्वेग के परिणाम स्वरूप, आवश्यकता से अधिक कैलोरी वाले, शर्करा तथा वसा युक्त भोजन करने से यह रोग उत्पन्न होता है । डायबिटीज आनुवांसकीय भी हो सकता है ।
डायबिटीज के रोगी क्या करें - चिंता, तनाव क्रोध, शोक, व्यग्रता से मुक्त रहें, हर माह में रक्त शर्करा की जांच, भोजन कम करें, भोजन में रेशेयुक्त, तरकारी, जौ, चने, गेंहू, बाजरे की रोटी, हरी सब्जी, दही का प्रचुर मात्रा में सेवन करें, हल्का व्यायाम करें, शरीरिक परिश्रम करें, और प्रातः 4 से 5 किलोमीटर घूमें, डायबिटीज पीड़ित नियमित एवं संयमित जीवन पर ध्यान दें, शर्करीय पदार्थो का सेवन सीमीत करें, मोटे और भारी वजन वाले व्यक्ति अपना वनज कम करें, ब्रहमचर्य का पालन करें, नित्य प्राणायाम एवं सूर्य नमस्कार अवश्य करें, नगें पैर जमीन पर अवश्य चलें । डायबिटीज के मरीजों को प्यास ज्यादा लगती है वे इसे नीबू पानी से प्यास बुझांए, भूख मिटाने के लिए खीरा खायें साथ ही गाजर और पालक का रस पीयें । तरोई, लौकी, परबल, पालक, पपीता का अधिक सेवन करें, शलजम रक्त में शर्करा की मात्रा कम करता है। चमत्कारी है गेंहू के जवारे का रस इसे ग्रीन ब्लड भी कहते हैं इसे सुबह-शाम आधा कम ज्वारे का ताजा रस पीयें ।
डायबिटीज के घरेलू इलाज- करेला जिसमें कैरेटिन जो कि प्राकृतिक स्टेरायॅड है रक्त में शर्करा का लेवल बढ़ने नहीं देता है करेले का 100 मि.ली. रस दिन में तीन बार लें , मैथी दाना 50 ग्राम नियमित लें, जामुन के फल के रस में  ‘‘जाम्बोलिन’’ तत्व एवं पत्ती और बीज डायबिटीज को जड़ से समाप्त कर सकता है, जामुन के सूखे बीजों के पाउडर एक चम्मच दिन में दो बार लें, आमला- आमला एवं करेले का रस बराबर मात्रा में मिला कर पीना लाभदायक है, नीम के 7 पत्ते खाली पेट चबाकर पानी पियें, सदाबहार के 7 फूल खाली पेट पानी के साथ चबायें काफी लाभकारी, बिल्व पत्र की 7 पत्तियां (एक पत्ती में 3 पत्तियां) एवं 5 काली मिर्च पीस कर सुबह के समय खाली पेट 1 माह तक लें, शिलाजीत 1 ग्राम प्रातः व शाम दूध के साथ लें । इंसुलिन का उपयोग हमेशा डाक्टर की निगरानी में आवश्यक है । दवा और जीवन शैली नुस्खों का प्रबंधन जरूरी है ।
आज स्टेम सेल थैरेपी हमें डायबिटीज से मुक्ति दिला सकती है इसमें बोन मैरो व अम्बिलिकल काॅड से स्टेम कोशिकाएं निकालते हैं और उन कोशिकाओं को पैन्क्रियाज की बीटा कोशिकाएं बनने लगती है और साथ ही बनने लगती हैं इंसुलिन, पूरी प्रक्रिया मं 24 दिन लगते हैं और इलाज का खर्च 3 लाख आता है और सफलता 70 प्रतिशत पाई गई है ।











            

Thursday 29 May 2014

पवित्र बरगद पेड़ ज्योतिसर (कुरूक्षेत्र) ‘‘ गीता’’ जन्मस्थली

पवित्र बरगद पेड़ ज्योतिसर (कुरूक्षेत्र)  ‘‘ गीता’’ जन्मस्थली

कुरूक्षेत्र ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व की भूमि रही है जो कि हरियाणा राज्य में है । यह पवित्र शहर धर्मक्षेत्र के रूप में भी जाना जाता है । प्राचीन समय में कुरूक्षेत्र दो पवित्र नदियों सरस्वती एवं द्रिसवती के बीच स्थित था । कुरूक्षेत्र ‘‘ महाभारत के पौराणिक 18 दिन लड़ाई कौरवों और पांडवों के बीच लड़ा गया था जहां जगह है ज्योतिसर भगवान कृष्ण अर्जुन को गीता का संदेश दिया । राजा कुरू ने इस जमीन पर भगवान विष्णु की गहन तपस्या की तो भगवान विष्णु ने दो वरदान दिये । पहला हमेशा के लिए इस भूमि कुरू, कुरूक्षेत्र की भूमि के रूप में अपने नाम के बाद एक पवित्र भूमि के रूप में जाना जाएगा और दूसरा इस भूमि पर मरने पर सभी को स्वर्ग मिलेगा । वट वृक्ष के नीचे जहां श्रीकृष्ण ने गीता के उपदेश दिये । कुरूक्षेत्र वह पवित्र शहर है जहां बरगद का एक पेड़ है जिसके नीचे बैठ कर भगवान कृष्ण ने दोस्त अर्जुन को पवित्र गीता का ( कर्म और धर्म के सिद्धांत ) उपदेश दिये । कुरूक्षेत्र महाभारत के 360 तीर्थयात्रा में से एक है । इस पवित्र तीर्थ जहां भगवान श्रीकृष्ण के कदमों की छाप पड़ी थी । पेड़ की जगह एक रहस्यवादी आभा जहां पक्षियों और गिलहरी के होने का अनुभव एवं पूरे दिन तीर्थयात्रियों के आवगन के बाद भी सदा शांतिपूर्ण वातावरण रहता है । पेड़ की परिक्रमा को बहुत शुभ माना जाता है । इस पेड़ पर पवित्र धागे को बाधने से सभी इच्छा पूरी होती है । जहां आप कृष्ण एवं अर्जुन को बात करते देख सकते हैं, यहां बरगद के पेड़ के नीचे एक गिलास और संगमरमर का एक छोटा सा रथ है। भगवद गीता में जिन 5 बुनियादी सत्य - ईश्वर, जीव, प्रकृति, काल और कर्म की व्याख्या की गई है । बरगद का यह पेड़ 5000 से अधिक साल पुराना एवं हरियाणा में कुरूक्षेत्र के पास ज्योतिसर में महाभारत के समय के शेष अवशेष है । यह पवित्र स्थान विलुप्त होने की कगार पर डाल उपेक्षित पेड़ छोड़ दिया है । किंवदंती यह भगवान कृष्ण की शिक्षाओं बहस के लिए दो युद्धरत सेनाओं के बीच रथ रोक दिया जहां जगह थी का कहना है कि गीता में अर्जुन को भगवान कृष्ण के पैरों के निशान रथ में देखा जा सकता है । ज्योतिसर तीर्थ - कुरूक्षेत्र के शहर से 5 किलोमीटर , ज्योतिसर तीर्थ निहित है । भगवान श्री कृष्ण बरगद के पेड़ के नीचे लड़ाई की पूर्व संध्या पर अर्जुन को गीता का संदेश दिया ।
कुरूक्षेत्र सदियों के लिए पवित्रता और पवित्रता का प्रतीक रहा है । उच्च धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व के इस पवित्र भूमि के लिए एक यात्रा वास्तव में एक पुरस्कृत अनुभव होगा ।














राजहंस (लेमिंगो) - लुप्त होते पक्षी - संरक्षण जरूरी

 राजहंस (लेमिंगो) - लुप्त होते पक्षी - संरक्षण जरूरी  

राजहंस को सोन पक्षी भी कहते हैं । यह प्रायः झुंड   बनाकर उड़ते हैं और झीलों के किनारे रहते हैं । इसके अनेक भेद हैं इसके रंग श्वेत तथा पैर और चोंच लाल रंग की होती है । यह अगहन पूस में  उत्तरीय भारत में उत्तर के ठंडे प्रदेशों से आते हैं ।
राजहंस बहुत ही सामाजिक पक्षी है । लेमिंगो एक मिलनसार पक्षी है राजहंस कैरोटीन की उनके भोजन के रूप लेने के कारण रंग में गुलाबी है । प्रजातियाँ -
1.   ग्रेटर लेमिंगो - अफ्रीका, दक्षिण यूरोप, एशिया
2.   कम राजहंस - उ.प्र. भारत, अफ्रीका
3.   चिली के राजहंस - दक्षिण अमेरिका
4.    जेम्स लेमिंगो - पेरू, चिलि, बोलिविया और अर्जेटीना
5.    रेडियन लेमिंगो - पेरू, चिलि, बोलिविया और अर्जेटीना
6.   अमेरिकी लेमिंगो - कैरेबियन और गैलपागोस द्वीप समूह ।
राजहंस के तथ्य: राजहंस ऊंचाई मंे 5 फुट के होते हैं । राजहंस का वजन 4 किलो पाया गया है । राजहंस के एक पंख का फेलाव 55 से 65 इंच के बीच पाया गया है । एक वयस्क राजहंस के पैर उसके शरीर की तुलना मंे बड़े होते हैं । राजहंस की आंखें अपने मस्तिक से भी अहम होती हैं । राजहंस के खाने में कैरोटीन से उन्हें गुलाबी रंग मिलता है । राजहंस एक पैर पर खड़ा हो सकता है । राजहंस का पैर झिल्ली दार होने से वह कीचड़ में खड़ा रह सकता है । राजहंस कालोनियों में रहने का आनन्द और एक मिलनसार पक्षी है । राजहंस के घौसले का व्यास लगभग 12-20 इंच होता है । राजहंस एक मांसाहारी पक्षी है ।
सर्दी के मौसम में अफ्रीका एंव यूरोप में बर्फवारी होने पर राजहंस पलायन कर भारत में दिसम्बर के महीने में आना शुरू हो जाते हैं पर अधिक संख्या में मार्च-अप्रैल के महीने में गुजरात एवं महाराष्ट के समुद्री किनारों पर प्रवास करते हैं ।  इनके शरीर का रंग गुलाबी या नारंगी होता है । इनके पंजो की बनावट झिल्लीनुमा होती है ताकि छिछले पानी में शिकार ढूढने में इन्हें मदद मिल सके । राजहंस दिन में आराम , रात में काम करते हैं राजहंस दिन में नदी व जलाशयों में आराम करते हैं और रात को खेतों व चारागाहों में भोजन की तलाश करते हैं ये शाकाहारी पक्षी घांस, सर्दियों की फसल व जलीय वनस्पति खाते हैं । ये एक टांग पर 4 घंटे से अधिक समय तक खड़े रह सकते हैं ।
शरीरिक विवरण: रंग - राजहंस के पंखों का रंग उनकी नस्लों के अनुसार विविधता लिये रहता है जो कि पीला गुलाबी से सिन्दूरी होता है । केरेबियन राजहंस -  सिन्दूरी, चिलियन राजहंस - पीला गुलाबी
इनके पंखों का रंग उनके केरोटीन खाने से जो कि उनके आहार से बनता है । नर एवं मादा राजहंस का एक ही रंग होता है । नवजात बच्चों का रंग ग्रे /घूसर या सफेद होता है । जैसे जैसे नवजात उम्र में बढ़ते हैं लगभग 1 से 2 साल मंे ये पूर्ण रंग प्राप्त कर लेते हैं । राजहंस की टांगों और पैरों का रंग उनकी जाति के अनुसार पीले से नांरगी या गुलाबी-लाल होता है । एनडिईन राजहंस की टागों और पैर पीले रंग के होते हैं । राजहंस की टांगें उसके शरीर के अनुपात में लम्बी होती है जो कि 80-125 से.मी. उनकी नस्लों के अनुसार पाई गई हैं । इनका टखना उनकी टांगों के बीचों बीच होता है । राजहंस का घुटना शरीर के बहुत पास होता है तथा दिखाई नहीं देता है । चिलियन, ग्रेटर और लेसर राजहंस के पैरों में 3 उंगलियां होती हैं तथा 1 उंगली पिछली तरह पाई गयी है । पैरों की उंगलियों के बीच झिल्ली होती है जो तैरने तथा भोजन प्राप्त करने में सहायता करती है । राजहंस के पंखों का फेलाव लगभग 95-100 से.मी छोटे राजहंस में तथा 140-165 से.मी. बड़े राजहंस में पाया गया है । केरेबियन राजहंस में पंखों का फैलाव लगभग 150 से.मी. होता है । इनके पंखों विशेषता इनके 12 उड़ने वाले परों में होती है जो काले रंग के होते हैं जो कि तभी दिखाई जैसे हैं जब राजहंस उड़ान भरता है । राजहंस की गर्दन लम्बी एवं घुमावदार होती है राजहंस की आंखें सिर के दोनों तरफ होती हैं । राजहंस के नवजात बच्चें की आंखे घूसर पर वयस्क की पीले रंग की होती हैं । राजहंस के चोंच (बिल) इस तरह बनी होती है कि उससे भोजन छनकर जाता है । उसके ऊपर एवं नीचे के जबड़े में दो कतारों में ब्रश के बालों जैसे लेमिने होते हैं जो 9 से 21 संख्या मंे होते हैं जो खाया भोजन छानने को काम करते हैं । इनकी जीभ मांसल होती हैं जिसमें ब्रिसटल होते हैं जो कि पानी और खाने के टुकड़े छन कर पेट में जाते हैं । राजहंस की श्रवण शक्ति बहुत अच्छी होती है वह अपने आवाज के उच्चारण से पूरे झुंड को जिसमें माता पिता एंव बच्चें सभी संगठित रहते हैं । राजहंस की दृष्टि दूरगामी होने से वह कई सौ / हजारेां राजहंसों को एक साथ देख सकते हैं । राजहंस के जीभ की स्पर्श छमता जबरजस्त होती है जो यह निर्णय लेती है कि कौन सा भोजन खाना है कौन सा नहीं । इनकी सूंघने की क्षमता न के बराबर होती है । राजहंस 50-60 किलोमीटर प्रति घंटे की स्पीड से उड़ सकते हैं । ये एक समय में 500 से 600 किलोमीटर तक रात के समय उड़ कर जा सकते हैं ।
आहार - राजहंस नीला- हरी और लाल शैवाल (अलगी), लार्वा, छोटे कीड़े, छोटी मछलियां खाती हैं । एल्फा एवं बीटा केरोटीनोइड पिगमेन्ट जो कि केन्थेकसानथीन से मिलता है ।
प्रजनन - राजहंस लगभग 6 साल में वयस्कता को प्राप्त करता है । एक वर्ष में मादा राजहंस एक अण्डा देती है जिसकी लम्बाई 78-49 मि.मी एव भार 115 ग्राम छोटे राजहंस में तथा 55 मि.मी एवं अण्डे का भार 140 ग्राम होता है। अण्डे का आकार आयताकार होता है जो कि मुर्गी के अण्डे से मिलता जुलता है । राजहंस के अण्डे का रंग सफेद (पीला-नीला) होता है । मादा अण्डे को 27-31 दिन तक सेती है तथा अण्डे से 24-36 घण्टे में बच्चा निकलता है । मादा और नर अपने बच्चों को अपने उपरी पेट से दूध जिसमें प्रोलक्टीन होता है देकर पालन पौषण करते हैं  इसमें 9 प्रतिशत प्रोटीन और 15 प्रतिशत वसा होती है । इस दूध का रंग लाल होता है जो कि केनथान्टिथीन जो कि बच्चे के यकृत में जमा होता रहता है बाद में बच्चे के बड़े होने पर पंख में आ जाता है ।

संरक्षण - मानव की दखलंदाजी की वजह से इनकी संख्या में कमी आई है । मानव द्वारा रोड, हाईवे बनाने से राजहंस के वातावरण को नुकसान पहुंचा है उनके आहार एवं प्रजनन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है । खनन में बोरोन, लीथीयम , नाईटेट, पोटेशियम, मोलेबडेनम का बुरा प्रभाव राजहंस की संख्या में पड़ा है । साथ ही नीची हवाई उड़ानों एवं दर्शकों द्वारा फोटोग्राफी ने भी  प्रभावित किया है ।




श्वेतार्क गणेश साधना , पूजन एवं महत्व

श्वेतार्क गणेश साधना , पूजन एवं महत्व
शास्त्रों में श्वेतार्क के बारे में कहा गया है - ‘‘ जहां कहीं भी यह पौधा अपने आप उग आता है, उसके आस-पास पुराना धन गड़ा होता है । जिस घर में श्वेतार्क की जड़ रहेगी, वहां से दरिद्रता स्वयं पलायन कर जाएगी । इस प्रकार मदार का यह पौधा मनुष्य के लिए देव कृपा, रक्षक एवं समृद्धिदाता है । सफेद मदार की जड़ में गणेशजी का वास होता है, कभी-कभी इसकी जड़ गणेशजी की आकृति ले लेती है । इसलिए सफेद मदार की जड़ कहीं से भी प्राप्त करें और उसकी श्रीगणेश की प्रतिमा बनवा लें । उस पर लाल सिंदूर का लेप करके उसे लाल वस्त्र पर स्.थापित करें । यदि जड़ गणेशाकार नहीं है, तो किसी कारीगर से आकृति बनवाई जा सकती है । शास्त्रों में मदार की स्तुति इस मंत्र से करने का विघान है ।

चतुर्भुज रक्ततनुंत्रिनेत्रं पाशाकुशौ मोदरक पात्र दन्तो ।
करैर्दधयानं सरसीरूहस्थं गणाधिनाभंराशि चू यडमीडे ।।

गणेशोपासना में साधक लाल वस्त्र, लाल आसन, लाल पुष्प, लाल चंदन, मूंगा अथवा रूद्राक्ष की माला का प्रयोग करें । नेवैद्य में गुड़ व मूंग के लडडू अर्पित करें । ‘‘ ऊँ वक्रतुण्डाय हुम् ’’ मंत्र का जप करें । श्रद्धा और भावना से की गई श्वेतार्क की पूजा का प्रभाव थोड़े बहुत समय बाद आप स्वयं प्रत्यक्ष रूप से अनुभव करने लगेंगे । तंत्र शास्त्र में श्वेतार्क गणपति की पूजा का विधान है । यह आम लक्ष्मी व गणपति की प्रतिमाओं से भिन्न होती है । यह प्रतिमा किसी धातु अथवा पत्थर की नहीं बल्कि जंगल में पाये जाने वाले एक पौधे  का श्वेत आक के नाम से जाना जाता है । इसकी जड़ कम से कम 27 वर्ष से ज्यादा पुरानी हो उसमें स्वतः ही गणेशजी की प्रतिमा बन जाती है । यह प्रकृति का एक आश्चर्य ही है । श्वेतक आक की जड़ (मूल) यदि खोदकर निकल दी जाये तो नीचे की जड़ में गणपति जी की प्रतिमा प्राप्त होगी । इस प्रतिमा का नित्य पूजन करने से साधक को धन-धान्य की प्राप्ति होती है । यह प्रतिमा स्वतः सिद्ध होती है । तन्त्र शास्त्रों के अनुसार ऐसे घर में जहां यह प्रतिमा स्ािापित हो, वहां रिद्धी-सिद्ध तथा अन्नपूर्णा देवी वास् करती है ।
            श्वेतार्क की प्रतिमा रिद्धी-सिद्ध की मालिक होती है । जिस व्यक्ति के घर में यह गणपति की प्रतिमा स्ािापित होगी उस घर में लक्ष्मी जी का निवास होता है तथा जहां यह प्रतिमा होगी उस स्थान में कोई भी शत्रु हानि नहीं पहुंचा सकता । इस प्रतिमा के सामने नित्य बैठकर गणपति जी का मूल मंत्र जपने से गणपति जी के दर्शन होते हैं तथा उनकी कृपा प्राप्त होती है । श्वेतक आक की गणपति की  प्रतिमा अपने पूजा स्थान में पूर्व दिशा की तरफ ही शता\शता स्थापित   करें । ‘‘ ओम गं गणपतये नमः ’’ मंत्र का प्रतिदिन जप करने । जप के लिए लाल रंग का आसन प्रयोग करें तथा श्वेत आक की जड़ की माला से यह जप करें तो जप कल में ही साधक की हर मनोकामना गणपति जी पूरी करते हैं ।
स्वास्थ्य और धन के लिए श्वेत आर्क गणपति: श्वेतार्क वृक्ष से सभी परिचित हैं । इसे सफेद आक, मदार, श्वेत आक, राजार्क आदि नामों से जाना जाता है । सफेद फूलों वाले इस वृक्ष को गणपति का स्वरूप माना जाता है । इसलिए प्राचीन ग्रंथों के अनुसार जहां भी यह पौधा रहता है, वहां इसकी पूजा की जाती है । इससे वहां किसी भी प्रकार की बाधा नहीं आती । वैसे इसकी पूजा करने से साधक को काफी लाभ होता है । अगर रविवार या गुरूवार के दिन पुष्प नक्षत्र में विधिपूर्वक इसकी जड़ को खोदकर ले आएं और पूजा करें तो कोई भी विपत्ति जातकों को छू भी नहीं सकती । ऐसी मान्यता है कि इस जड़ के दर्शन मात्र से भूत-प्रेत जैसी बाधाएं पास नहीं फटकती । अगर इस पौधे की टहनी तोड़कर सुखा लें और उसकी कलम बनाकर उसे यंत्र का निर्माण करें , तो यह यंत्र तत्काल प्रभावशाली हो जाएगा । इसकी कलम में देवी सरस्वती का निवास माना जाता है । वैसे तो इसे जड़ के प्रभाव से सारी विपत्तियां समाप्त हो जाती हैं । इसकी जड़ में दस से बारह वर्ष की आयु में भगवान गणेश की आकृति का निर्माण होता है । यदि इतनी पुरानी जड़ न मिले तो वैदिक विधि पूर्वक इसकी जड़ निकाल कर इस जड़ की लकड़ी में गणेश जी की प्रतिमा या तस्वीर बनाएं । यह आपके अंगूठे से बड़ी नहीं होनी चाहिए । इसकी विधिवत पूजा करें । पूजन में लाल कनेर के पुष्प अवश्य इस्तेमाल में लांए । इस मंत्र ‘‘ ऊँ पंचाकतम् ऊँ अंतरिक्षाय स्वााहा ’’ से पूजन करें और इसके पश्चात इस मंतर
‘‘ ऊँ ह्रीं पूर्वदयां ऊँ ही्रं फट् स्वाहा ’’ से 108 आहुति दें । लाल कनेर के पुष्प शहद तथा शुद्ध गाय के घी से आहुति देने का विधान है । इसके बाद 11 माला जप नीचे लिखे मंत्र का करंे और प्रतिदिन कम से कम 1 माला करें । ‘‘ ऊँ गँ गणपतये नमः ’’ का जप करें । अब ’’ ऊँ ह्रीं श्रीं मानसे सिद्धि करि ह्रीं नमः ’’  मंत्र बोलते हुए लाल कनेर के पुष्पों को नदी या सरोवर में प्रवाहित कर दें । धार्मिक दृष्टि से श्वेत आक को कल्प वृक्ष की तरह वरदायक वृक्ष माना गया है । श्रद्धा पूर्वक नतमस् तक होकर इस पौधे से कुछ माँगन पर यह अपनी जान देकर भी माँगने वाले की इच्छा पूरी करता है । यह भी कहा गया है कि इस प्रकार की  इच्छा शुद्ध होनी चाहिए । ऐसी आस्था भी है कि इसकी जड़ को पुष्प नक्षत्र में विशेष विधिविधान के साथ जिस घर में स्ािापित किया जाता है वहाँ स्थायी रूप से लक्ष्मी का वास बना रहता है और धन धान्य की कमी नहीं रहती । श्वेतार्क के ताँत्रिक, लक्ष्मी प्राप्ति, ऋण नाशक, जादू टोना नाशक, नजर सुरक्षा के इतने प्रयोग हैं कि पूरी किताब लिखी जा सकती है । थोड़ी सी मेहनत कर आप भी अपने घर के आसपास या किसी पार्क आदि में श्वेतार्क का पौधा प्राप्त कर सकते हैं । श्वेतार्क गणपति घर में स्ािापित करने से सिर्फ गणेश जी ही नहीं बल्कि माता लक्ष्मी और भगवान शिव की भी विशेष कृपा प्राप्त होती है । सिद्धी की  इच्छा रखने वालों को 3 मास तक इसकी साधन करने से सिद्धी प्राप्त होती है । जिनके पास धन न रूकता हो या कमाया हुआ पैसा उल्टे सीधे कामों में जाता हो उन्हें अपने घर में श्वेतार्क गणपति की स्.थापना करनी चाहिए । जो लोग कर्ज में डूबे हैं उनके लिए कर्ज मुक्ति का इससे सरल अन्य कोई उपाय नहीं है । जो लोग ऊपरी बाधाओं और रोग विशेष से ग्रसित हैं इसकी पूजा से वायव्य बाधाओं से तुरंत मुक्ति और स्वास्थ्य में अप्रत्याशित लाभ पा सकते हैं । जिनके बच्चों का पढ़ने में मन न लगता हो वे इसकी स्.थापना कर बच्चों की एकाग्रता और संयम बढ़ा सकते है । पुत्रकाँक्षी यानि पुत्र कामना करने वालों को गणपति पुत्रदा स्त्रोत का पाठ करना चाहिए ।
 श्वेतार्क गणेश साधना:  हिन्दू धर्म में भगवान गणेश को अनेक रूप में पूजा जाता है इनमें से ही एक श्वेतार्क गणपति भी है । धार्मिक लोक मान्ताओं में धन, सुख-सौभाग्य समृद्धि ऐश्वर्य और प्रसन्नता के लिए श्वेतार्क के गणेश की मूर्ति शुभ फल देने वाली मानी जाती है । श्वेतार्क के गणेश आक के पौधे की जड़ में बनी प्राकृतिक बनावट रूप में प्राप्त होते हैं । इसे पौधे की एक दुर्लभ जाति सफेद श्वेतार्क होती है जिसमें सफेद पत्ते और फूल पाए जाते हैं इसी सफेद श्वेतार्क की जड़ की बाहरी परत को कुछ दिनों तक पानी में भिगोने के बाद निकाला जाता है तब इस जड़ में भगवान गणेश की मूरत दिखाई देती है । इसकी जड़ में सूंड जैसा आकार तो अक्सर देखा जा सकता है । भगवान श्री गणेश जी को ऋद्धि-सिद्धि व बुद्धि के दाता माना जाता है । इसी प्रकार श्वेतार्क नामक जड़ श्री गणेश जी का रूप मानी जाती है श्वेतार्क सौभाग्यदायक व प्रसिद्धि प्रदान करने वाली मानी जाती है । श्वेतार्क की जड़ श्री गणेशजी का रूप मानी जाती है। श्वेतार्क सौभाग्यदायक व प्रसिद्धि प्रदान करने वाली मानी जाती है । श्वेतार्क की जड़ को तंत्र प्रयोग एवं सुख-समृद्धि हेतु बहुत उपयोगी मानी जाती है । गुरू पुष्प नक्षत्र में इस जड़ का उपयोग बहुत ही शुभ होता है । यह पौधा भगवान गणेश के स्वरूप होने के कारण धार्मिक आस्था को और गहरा करता है ।
श्वेतार्क गणेश पूजन: श्वेतार्क गणपति की प्रतिमा को पूर्व दिशा की तरफ ही स्.थापित करना चाहिए तथा श्वेत आक की जड़ की माला से यह गणेश मंत्रों का जप करने से सर्वकामना सिद्ध होती है । श्वेतार्क गणेश पूजन में लाल वस्त्र, लाल आसान, लाल पुष्प, लाल चंदन, मूंगा अथवा रूद्राक्ष की माला का प्रयोग करनी चाहिए । नेवैद्य में लडडू अर्पित करने चाहिए ‘‘ ऊँ वक्रतुण्डाय हुम् ’’ मंत्र का जप करते हुए श्रद्धा व भक्ति भाव के साथ श्वेतार्क की पूजा कि जानी चाहिए पूजा के श्रद्धा व भक्ति भाव के साथ श्वेतार्क की पूजा कि जानी चाहिए पूजा के प्रभावस्वरूप् प्रत्यक्ष रूप से इसके शुभ फलों की प्राप्ति संभव हो पाती है । तन्त्र शास्त्र में भी श्वेतार्क गणपति की पूजा का विशेष बताया गया है । तंत्र शास्त्र अनुसार घर में इस प्रतिमा को स्ािापित करने से ऋद्धि-सिद्धि कि प्राप्ति होती है । इस प्रतिमा का नित्य पूजन करने से भक्त को धन-धान्य की प्राप्ति होती है तथा लक्ष्मी जी का निवास होता है । इसके पूजन द्वारा शत्रु भय समाप्त हो जाता है । श्वेतार्क प्रतिमा के सामने नित्य गणपति जी का मंत्र जाप करने से गणेशजी का आर्शिवाद प्राप्त होता है तथा उनकी कृपा बनी रहती है ।
श्वेतार्क गणेश महत्व: दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजन के साथ ही श्वेतार्क गणेश जी का पूजन व अथर्वशिर्ष का पाठ करने से बंधन दूर होते हैं और कार्यों में आई रूकावटें स्वत: ही दूर हो जाती है । धन की प्राप्ति हेतु श्वेतार्क की प्रतिमा को दीपावली की रात्रि में षडोषोपचार पूजन करना चाहिए । श्वेतार्क गणेश साधना अनेकों प्रकार की जटिलतम साधनाओं में सर्वाधिक सरल एवं सुरक्षित साधना है । श्वेतार्क गणपति समस्त प्रकार के विघनों के नाश के लिए सर्वपूजनीय है । श्वेतार्क गणपति की विधिवत स्ािापन और पूजन से समस्त कार्य साधानाएं आदि शीघ्र निर्विघं संपन्न होते है। । श्वेतार्क गणेश के सम्मुख मंत्र का प्रतिदिन 10 माला जप करना चाहिए तथा ‘‘ ऊँ नमो हस्ति - मुखाय लम्बोदराय उच्छिष्ट - महात्मने आं क्रों हीं क्लीं ह्रीं हूं घे घे उच्छिष्टाय स्वाहा ’’ साधना से सभी इष्ट कार्य सिद्ध होते हैं ।








Wednesday 28 May 2014

इन्दौर का ‘‘ पंढरीनाथ मंदिर ’’

इन्दौर का ‘‘ पंढरीनाथ मंदिर ’’

इन्दौर का ‘‘ पंढरीनाथ मंदिर ’’ जो कि चंद्रभागा पुल के पास मराठा शैली की  स्थापना   1811 से 1833 के मध्य महाराजा मल्हाराव होल्कर द्वितीय के समय विसाजी लांभाते जागीरदार द्वारा कराई गई । मराठा शैली का यह मंदिर 2167 वर्गफीट में बनाया गया है । इसके गर्भगृह में पंढरीपुर विष्णु, रूकमिणी और गोपालकी मूर्तियां  स्थापित हैं ।

इस मंदिर का प्रबंधन विटठनाथ मंदिर संस्थान इंदौर द्वारा किया जाता है । यह मंदिर विट्ठल /विष्णु भगवान का मंदिर है । पंढरीनाथ को विठोबा, पांडुरंग और विट्ठल नाम से भी पुकारा जाता है । खासगीदेवी अहिल्याबाई होलेकर ट्रस्ट द्वारा संचालित मंदिर में हर अमावस्या और पूर्णिमा को कथा होती है । पंढपुर के पंढरीनाथ मंदिर में देवशयनी एकादश पर लाखों भक्त अपने आराध्य के दर्शन करते हैं । मराठी समाज की अगुआई में मराठी भाषा एकाकार भाव से लोग दिंडी निकालने लगे हैं । खानदेशी टोपी, कुर्ता पायजामा , जरी पटके की साड़ी के पारंपरिक परिधान पहन मराठी भाषी महिला-पुरूष दिंडी में शामिल हुए ।






कोयल - विलुप्त पक्षी ( संरक्षण आवश्यकता )

कोयल - विलुप्त पक्षी  (  संरक्षण आवश्यकता )

कोयल एक पक्षी है। कोयल कोकिल ‘‘ कुक्कू कुल’’ का पक्षी है । जिसका वैज्ञानिक नाम ‘‘ यूडाइने मिस स्कोलोपेकस स्कोलोपकेस ’’ है ।  नर कोयल नीलापन लिए काला होता है तो मादा तीतर की तरह धब्बेदार चितकबरी होती है । नर कोयल ही गाता है उसकी आंखें लाल व पंख पीछे की ओर लम्बे होते हैं ।  नीड़ परजीविता इस कुल के पक्षियों  की विशेष नेमत है यानि कि ये घोसलां नही बनाती है । ये दूसरे पक्षियों विशेषकर कौए के घौंसले के अंडों को गिरा कर अपना अंडा उसमें रख देती है । स्वभाव से संकोचीं यह पक्षी कभी किसी के सामने पड़ने  से कतरता है । इस वजह से उनका प्रिय आवास या तो आम के पेड़ है या फिर मौलश्री के पेड़ अथवा कुछ इसी तरह के सहाबहार घने वृक्ष जिसमें ये अपने आपको छिपाये हुए तान छेड़ता   है । कोयल की आवाज बहुत मीठी होती है जितनी मीठी उसकी आवाज होती है उससे कहीं अधिक वह चालाक होती है । अपनी इसी चालाकी से व कौवों को बेवकूफ बनाती है । अपने अण्डों को सेने का कार्य ।
कौए व कोयल एक ही मौसम में अण्डे देते हैं । कौए और कोयल के अण्डें लगभग एक समान होते हैं उनमें फर्क करना बहुत कठिन होता है पता ही नहीं चलता है कि कौन सा अण्डा कोयल का है और कौन सा कौए का । इसी का फायदा उठा कर कोयल अपने अण्डे कौए के घौंसले में रख देती है कौए उन अण्डों को अपने समझ कर सेते हैं वैसे होता तो कौए भी बहुत चालाक पर कोयल उन्हें धोका देने में सफल रहती है । कौए के घौसलें में अपने अण्डें रखते समय कोयल बहुत सावधानी बरतती है जब मादा कोयल ने अंडे रखने होते हैं तब नर कोयल कौओ को चिढ़ाता है कौए चिढ़ कर उसका पीछा करते हैं  पीछा करते कौए अपने घौसले से दूर चले जाते हैं तब मादा कोयल अपने अंडे कौए के घोंसले में रख देती है । कौओं को शक न हो इसलिए वह अपने जितने अण्डें रखती है कौओं के उतने ही अण्डें घौंसले से उठा कर दूर फेंक आती है । फिर एक विशेष आवाज निकालकर नर कौयल को काम पूरा होने की सूचना देती है । तब नर पीछा करते कौओं को चकमा देकर गायब हो जाता है । फिर कौए कोयल के अंडों को अपने अंडे समझकर सेते रहते हैं । अंडों में से जब बच्चे निकल आते हैं तो  कौए उन्हें  अपने बच्चे समझकर पालते हैं । बड़े होने पर कोयल के बच्चे को चकमा देकर बच निकलने में सफल हो जाते हैं । धीरे धीरे कुहू कुहू बीते समय की बात हो चली है एवं नुकसान की बड़ी वजह शहरी इलाकों में बेहततीब से लगाए जाने वाले टाबर जिनसे निकलने वाली घातक तरंगों और इलेक्टान ने कोयल की प्रजनन क्षमता को सीधे तौर पर प्रभावित किया है । इससे प्रजनन में कमी आई है अब कोयल दिखना बंद हो गई है । इसके साथ ही जलवायु परिवर्तन ने भी फुदकती गायिका को नुकसान पहुंचाने में कसर नहीं छोड़ी है ।
आगन में लगे वृक्ष पर पक्षियों के लिए पानी की व्यवस्था करें तो सुबह -शाम पक्षियों की कलरव सुनाई देगी । आज हम सभी ने इस विषय में सोचना है और आगे की योजना बना कर वृक्ष लगाना, पक्षियों के प्रति रूक्षान को बढ़ावा देना होगा ताकि हम अपने बच्चों को बता सकें की कोयल ऐसी होती है ।
कहाँ गई कोयल की कुहू -कुहू , अब तो आम पर बौर भी आ गये पर आई न आवाज तुम्हारी प्यारी कोयल । कहाँ खो गई हो तुम मदवाली कोयल । दिनों दिन कम होती पक्षियों की चहचहाट सभी के लिए चिंता का विषय बन चुकी है । इन दिनों अक्सर दिखाई देने वाली कोयल नजर नहीं आना । कभी पेड़ों की डालियों पर विशेषकर आम की, पर कभी कभी झुरमुट के पीछे, तो कभी कभी छत पर आकर कुुुहू कुहू करने वाली कोयल अब शहरी इलाके में न के बराबर बची हैं  पर्यावरणविद मानते हैं कोयल का नजर नहीं आना इतिहास के एक अध्याय पर पर्दा डल जाने की तरह ही होगा । 







लिली - सुगंध एवं सुन्दर आकृति वाले फूल

लिली  - सुगंध एवं सुन्दर आकृति वाले फूल  

लिली के कीपाकार फूल अपनी सुन्दरता सुगंध एवं आकृति के कारण प्रसिद्ध हैं । फूलों की पंखुड़ियों में बाहर की ओर भूरी या गुलाबी वर्ण रेखाएं रहती हैं और अंदर की ओर पीली अथवा सफेद आभा रहती है । इसका तना कई फुट उंचा होता है और इसमें अंतस्थ फूल या अंतस्थ फूलगुच्छ लगता है । लिली कन्दीय वर्ग का महत्वपूर्ण फूल है । यह लिलियेसी कुल का सदस्य है इसके फूल अत्यन्त सुन्दर, आकर्षक, चमकदार तथा विभिन्न रंगों के होते हैं । विभिन्न प्रकार की लिलियों में सबसे अधिक मांग ओरिएन्अल तथा एशियाटिक हाइब्रिड लिली की है । लिली की प्रजातियों में टाइगर लिली, मैडोना लिली, चीनी लिली, जापानी लिली, श्वेत ऐस्टर लिली आदि । लिली के फूल तुरही के आकार का फूल 6 इंच व्यास के होते हैं । इनका रंग सफेद, पीला, गुलाबी लाल और नारंगी होता है जिनके भीतरी पत्ती पर एक गहरा रंग होता है । वानस्पतिक नाम लिलियम  है । इसके पौधे कठोर, अर्धकठोर तथा कंदीय शाक होते हैं । 
टाइगर लिली - यह एक बारहमासी फूल जो चैड़ाई में तीन इंच तक बढ़ सकता है । इसकी पंखुड़ियां नारंगी और उस पर धब्बे काले इसे टाइगर लिलि बनाते हैं । इस फूल में एक विशेष प्रकार की खूशबू आती है और इसकी भी दो किस्में हैं ओरिएंटल और आम वाइल्टलावर । टाइगर लिली औषधीय मूल्य के कारण इसका उपयोग गर्भावस्था के मतली और उल्टी कम करने में सहायक होती है । टाईगर लिली  व्यक्ति की आक्रामक प्रवृति को दबाने में मदद करती है और आध्यात्मिक उपचार में मदद करती है । 
फुटबाल लिली - यह फूल वर्ष में एक ही बार खिलता है और फूल देने का समय भी निश्चित है यह 15 से 20 जून के बीच ही खिलता है । एक सप्ताह में यह फूल खत्म हो जाता है और कुछ ही दिनों में इसकी पत्तियों आ जाती है । लिली की उत्पत्ति उत्तरी गोलार्द्ध है, एशिया, उत्तरी अमेरिका, भूमध्यसागरीय भाग में हुई है । ऐतिहासिक काल में लिली का धार्मिक महत्व था । जिसमें लिली को कला, साहित्य और उद्यान सभी जगह प्रयोग किया गया है । लिली ऐसी कुल का महत्वपूर्ण कंदीय पुष्प है । ज्यादातर लिली एकल शाखीय होते है जिस पर पतली नुकीलीदार पत्ती होती है । छतरीदार फूल शाखा के शीर्ष पर लगते है । फूल पूर्ण विकसित तथा 6 पंखुड़ी लिए होते हैं । लिली को मुख्यतः 8 भागों में बांटा गया है । ये वर्गीकरण मुख्यतः पुष्प प्रति डंडी, पुष्प आकार व पुष्प स्थिति के आधार पर किया गया है । इनमें से केवल दो वर्गीकरण एशियाटिक एवं ओरियंटल प्रजातियां ।
ओरिएंटल लिली - ओरिएंटल लिली अपनो से बड़ों को दिया जाता है खासकर अपने प्रियजनों के प्रति आभार व्यक्त करने और उनके प्रति मान-सम्मान दर्शाने के लिए । नारंगी लिली - किसी से माफी मांगने के लिए दिया जाता है ।
लिली के फूल भी सफेद, नारंगी, पीले और लाल रंग में मिलते हैं कभी विदेशों का फूल माने जाने वाले लिली की कई प्रजातियां अब हमारे देश में भी उगाई जाने लगी हैं । लिली को जापान,सऊदी अरब और पाकिस्तान को निर्यात भी किया जा रहा है । लिली के बीज ज्यादातर हाॅलैंड से आते हैं ये फूल दिसम्बर से मार्च तक बाजार में मिलते हैं । लिली को बीज और बल्बस की मदद से लगाया जा सकता है ।