Monday, 4 August 2014

माण्डू - ऐतिहासिक पर्यटन स्थल

माण्डू  - ऐतिहासिक पर्यटन स्थल












माण्डू मध्य प्रदेश का प्राचीनतम शहर पर्यटन की दृष्टि से एशिया स्तर पर सर्वोत्तम माना जाता है। यह शहर न सिर्फ ऐतिहासिक है, अपितु यहां  के भवन वास्तुकला की दृष्टि से भी अद्भुत कहे जाते हैं। माण्डू को मालवा का स्वर्ग बताते हैं। यहां की माटी के बारे में कहा जाता है कि ‘मालवा माटी गहर-गंभीर। पग-पग रोटी डग-डग नीर।’ यह इन्दौर से लगभग 100 किमी दूर है। माण्डू विन्ध्य की पहाड़ियों में 2000 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यह मूलतः  मालवा के परमार राजाओं की राजधानी रहा था। तेरहवीं शती में मालवा के सुलतानों ने इसका नाम शादियाबाद यानि ‘‘खुशियों का शहर’’ रख दिया था। वास्तव में यह नाम इस जगह को सार्थक करता है। यहाँ के दर्शनीय स्थलों में जहाज महल, हिन्डोला महल, शाही हमाम और आकर्षक नक्काशीदार गुम्बद वास्तुकला के उत्कृष्टतम रूप हैं। परमार शासकों द्वारा बनाए गए इस नगर में जहाज और हिंडोला महल खास हैं। यहाँ के महलों की स्थापत्य कला देखने लायक है। माण्डू  अमर प्रेम गाथा का साक्षी रहा है । माण्डू जीवन के आमोद प्रमोद और पत्थरों में मुखरित प्रेम की अमरगाथा का जीवंत साक्ष्य है जिसे कवि और राजकुमार बाजबहादुर ने अपनी प्रेयसी रानी रूपमती के प्रेम की निशानी के रूप में बसाया था। इस नगर की पाषाण प्राचीरों में गहरी प्रेमानुभूति साकार हुई है। आज भी मालवा अंचल के लोकगायक उन विलक्षण प्रेमियों की अमर प्रेमगाथा को गा-गाकर सुनाते हैं और रसिकों को अभिभूत कर देते हैं। 













यहां पर्वत शिखर पर विद्यमान रूपमती का मण्डप आज भी बाजबहादुर के महल को अनिमेष भाव से निहार रहा है। यह मंडप अफगान वास्तु कला का बेजोड़ नमूना है। समुद्र तल से दो हजार फुट की ऊंचाई पर विंध्य पर्वत मालाओं में बसा माण्डू प्रकृति के विभिन्न सुरम्य रूपों को अपनी वादी में समेटे हुए है। इसकी सुरक्षा विशेषताओं के कारण यह मालवा के परमार राजाओं की दुर्ग राजधानी बनी। बाद में 13 वीं सदी के अंत में यह मालवा के सुल्तान राजाओं की प्रभाव सीमा में आ चुकी थी। इनमें से पहले ही राजा ने इसे शाजियाबाद (आनंद का नगर) के रूप में विख्यात किया। सचमुच ही माण्डू का समूचा परिवेश आनंद और उल्लास से भरा हुआ है। इसके शासकों ने इसी भावना के अनुरूप यहां सुंदर राजप्रसादों का निर्माण किया । जहाज महल, हिंडोला महल, सुंदर आकर्षक नहरें, स्नानागार और भव्य मंडप जो शांति और समृद्धि के इस काल की भव्यता लिए हुए हैं।














माण्डू का प्रत्येक स्थापत्य वास्तुकला की दृष्टि से एक रत्न है। इनमें विशाल जामी मस्जिद और होशंगशाह का मकबरा उल्लेखनीय है। जिनके निर्माण की भव्यता ने सदियों बाद में ताजमहल जैसी इमारत के महान निर्माताओं को अनुप्रेरित किया था। मुगल शासनकाल में माण्डू आमोद-प्रमोद का स्थान था जिसके सरोवरों और महलों मे आनंद और उत्सव का वातावरण सदा ही बना रहता था। माण्डू की यही कीर्ति गाथा अमर हो गई जो उसके राजप्रसादो और मस्जिदों में, जनश्रुतियों और गीतों में बाद की पीढ़ियों को विरासत में मिली।


 










माण्डू के चारों ओर का परकोटा 45 कि.मी. लंबी दीवार से घिरा हुआ है और इसमें 12 दरवाजे हैं। इनमें सबसे प्रसिद्ध दिल्ली दरवाजा है जो किलेनुमा शहर का प्रमुख प्रवेश द्वार है। और जहां पहुंचने के लिए अनेक दरवाजों से गुजरना पडता है जिनकी मजबूती के लिए दीवारें और मजबूत बुर्ज बनाए गए हैं। इनमें आलम और भंगी दरवाजा मुख्य है जिन से होकर वर्तमान मार्ग गुजरता है। इसके अलावा रामपोल दरवाजा, जहांगीर दरवाजा और तारापुर दरवाजा प्रमुख हैं। जहाज महल- जहाज की आकृती का 120 मीटर लंबा यह महल दो कृत्रिम तालाबों मुंज तालाब और कपूर तालाब के बीच दो मंजिलों के रूप में बना हुआ है। संभवतरू इसका निर्माण सुल्तान गयासुद्दीन खिलजी ने अपने विशाल हरम के रूप में किया था। 











इसके खुले मंडप ,पानी पर झुकते हुए से छज्जे और खुले बरामदें कल्पनाशील राजसी वैभव और उसके मुक्त उल्लास को प्रकट करते हैं। इसके पडोस में बने तवेली महल से निहारने पर चांदनी रातों में इसके छोटे-छोटे बुर्जों और उनके कंगूरों के सौंदर्य के साथ उनकी छायाएं आनंद विभोर कर देती हैं। हिंडोला महल -यहां गयासुद्दीन के शासनकाल का एक सभा भवन है। अपनी ढलानदार दीवारों के कारण यह झूलता हुआ सा दिखाई देता है। बलुआ पत्थर से निर्मित इसकी सुंदर जालीदार नक्काशी और शानदार ढले हुए स्तंभ दर्शकों को आकर्षित करते हैं। हिंडोला महल के पश्चिम की ओर अनेक अनाम इमारतें अपने पुरातन वैभव और भव्यता की कहानी बयां कर रही है। इनके बीच ही खूबसूरत चंपा बावड़ी है जो जमीन के नीचे बनाए गए मेहराबदार तहखाने से जुडी है, जहां कभी ठंडे और गर्म पानी का प्रबंध रहता होगा। इस बस्ती के आस-पास वास्तुकला के रोचक नमूनों में दिलावर खान की मस्जिद, नाहर झरोखा, तवेली महल , उजली और अंधेरी बावड़ी तथा गदाशाह का घर भी देखने योग्य है। होशंगशाह का मकबरा- संगमरमर से बनी यह पहली इमारत अफगान वास्तुकला के सुंदर नमूनों में से एक है। 













इसके खूबसूरत डिजाइन वाले आकर्षक गुंबद, संगमरमर में तराशी गई सुंदर जालियां , ड्यौढ़ीदार राजसभा कक्ष तथा आयताकार मकबरे के चारों कोनों पर बनी सुंदर मीनारें बेजोड़ हैं। इसकी रूपाकृति का अध्ययन करने के लिए शाहजहां ने चार जाने-माने वास्तुकार यहां भेजे थे। इनमें  वास्तुकार हमीद भी शामिल था जिसकी देख-रेख में ताजमहल बना था। जामी मस्जिद-  इसके निर्माण की प्रेरणा दमिश्क में बनी विशाल मस्जिद से ली गई थी। ऊंचे चबूतरे पर बनी इस मस्जिद के बीचों -बीच एक विशाल गुंबदनुमा ड्यौढ़ी बनी हुई है और पीछे की ओर भी अनेक गुंबद बनाए गए हैं। इस विशाल मस्जिद का सहजतम रूप देखकर दर्शक चमत्कृत हो उठते हैं। 
मस्जिद का विशाल प्रांगण चारों तरफ विशाल स्तंभों से घिरा हुआ है जिनकी मेहराबें खूबसूरत और सुरूचि के साथ काढ़ी गई हैं। महराबों, स्तंभों, आलों और गुम्बदों का क्रम भी विविधता लिए हुए है। अशर्फी महल- सोने के सिक्कों के महल के नाम से प्रसिद्ध यह महल युवकों की शिक्षा के लिए एक मदरसे के रूप में परिकल्पित किया गया था। इसे होशंगशाह के उत्तराधिकारी मोहम्मद शाह खिलजी ने बनवाया था । आज भी यहां कुछ अध्ययन कक्ष अच्छी हालत में मौजूद हैं । यह महल जामी मस्जिद के ठीक सामने बना है । खिलजी ने इस महल के प्रांगण में मेवाड़ के राणा कुंभा पर अपनी जीत की यादगार में एक सात मंजिला मीनार बनवाई थी । अब इसकी एक ही मंजिल बची है । यहां भग्नावस्था में वह मकबरा भी है जिसे मांडू की सबसे बड़ी इमारत बनाने का इरादा खिलजी ने किया था किंतु जल्दबाजी और आकल्पन की गड़बड़ी की वजह से ये मकबरा ढह गया ।












रेवाकुंड - बाजबहादुर ने एक सरोवर के रुप में इसका निर्माण करवाया था जिसमें जल सेतु की भी व्यवस्था थी जिससे रुपमती के महल को जलापूर्ति होती रहे । अभी भी सरोवर एक कुंड के रुप में स्थित है ।
बाजबहादुर का महल - 16 वीं सदी के आरंभिक काल में बाजबहादुर द्वारा निर्मित इस महल की अनूठी विशेषताएं हैं । इसका विशाल प्रांगण चारों ओर भव्य कक्षों से घिरा है जिनके ऊंचे छज्जों से आसपास के ग्राम्य दृश्यों की नैनाभिराम छवियां मन को मोह लेती हैं । रुपमती का मंडप - ये मंडप विशेष रुप से सैनिक निगरानी कैंप के रुप में बनवाया गया था । गिरीशिखर पर निर्मित यहां 2 मंडप हैं जो रानी के एकांत आश्रयवास थे जहां से वे बाजबहादुर  के महल को निहारती थीं और सूदूर बहती हुई नर्मदा के सौंदर्य का पान करती थीं । मांडू में और भी बहुत से दर्शनीय स्मारक हैं जो किसी समूह में नहीं आते किंतु पर्यटकों के लिए उनका आकर्षण किसी भी प्रकार से कम नहीं है । 





नीलकंठ - भगवान शिव के पवित्र आश्रय के रुप में स्थापित पर्वत की गहराई में बना ये मंदिर श्रद्धालुओं के आकर्षण का केंद्र है । इस घाटी का समूचा परिवेश अत्यंत रमणीय है । वृक्षों की घनी और सुंदर छाया के बीच यहां एक कुंड है जिसमें पहाडी झरने से पानी आता है । नीलकंठ महल - नीलकंठ के पास ही महल का निर्माण मुगल काल के मुस्लिम गर्वनर शाह बादशाह खान ने सम्राट अकबर की हिंदु पत्नि के लिए किया था । यहां की दीवारों पर अकबर के समय के कुछ ऐसे शिलालेख हैं जो सांसारिक वैभव और समृद्धि की निस्सारता की ओर संकेत करते हैं ।हाथी महल, दरया खान का मकबरा , दायी का महल , दायी की छोटी बहिन का महल, मालिक मुगिथ की मस्जिद और जाली महल भी मांडू के आकर्षक स्मारक हैं । इनके अलावा प्रतिध्वनि बिंदु भी मांडू का एक बहुत बड़ा आकर्षण है । यहां हमारी आवाज की गूंज और फिर उसकी अनुंगूज बड़ी देर तक सुनाई देती है । लोहानी गुफाएं और अनेक मंदिरों के भग्नावेश भी जो राज परिसर से अधिक दूर नहीं हैं , यात्रियों के लिए दर्शनीय हैं क्योंकि मांडू के इतिहास से ये स्मारक गहरा संबंध रखते हैं । गुफाओं के सामने् ही अस्ताचल बिंदु है , जहां से सुहानी शाम में मांडू के ग्रामंचलों और इसके सुरम्य परिवेश को आनंदपूर्वक देखा जा सकता है ।








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