Monday 30 June 2014

चेरी - पौष्टिक एवं स्वास्थ्यप्रद फल

चेरी  - पौष्टिक एवं स्वास्थ्यप्रद फल

चेरी पौष्टिक एवं स्वास्थ्यप्रद फल है । .चेरी (प्रूनस एवियम) एक चमकीले लाल रंग का रसदार फल है जो ताजा खाया जा सकता है । चेरी एक अविश्वसनीय स्वादिष्ट खटटा - मीठा फल है जो विभिन्न तरह के भोज्य पदार्थो में उपयोग किया जाता है । अपने चटख लाल रंग और शानदार खटटे-मीठे स्वाद के कारण चेरी को ‘‘ रेड हाॅट सुपर फल ’’ का दर्जा दिया गया है । छोटे से बीज और रसीले गूदे वाली चेरी पौष्टिक तत्वों से भरपूर और स्वास्थ्यवर्धक गुणों की खान है । चेरी के पतले लाल रंग के छिलके  में पोली फिलोनोलिक फलेवोनोयड जैसे एंटी आॅक्सीडेंट गुण पाये जाते हैं । यूरोप और यूनान में चेरी की खेती के साक्ष्य मिलते हैं । आज चेरी विश्व भर में निर्यात होती है । भारत में जम्मू काश्मीर और मनाली में चेरी की बागवानी की जाती है । सुन्दर सुगंधित चेरी फूल वसंत का अनुष्ठान करते हैं । चेरी की विभिन्न किस्में-चेरी को 3 वर्गो में बांटा गया है
1.मीठी चेरी (प्रूनस एवियम) - स्वाद में ज्यादा स्वादिष्ट और मीठी होती है और ताजा खाने के लिए, 2. खटटी चेरी (प्रूनस सीरैसस)- दो प्रकार 1. अमरैनी चेरी और 2 मौरैली चेरी - कम मीठी , खटास ज्यादा मात्रा में होती है यह रस और सूखे चेरी बनाने के लिए 3. डयूक चेरी - खटटा-मीठा जुले स्वाद वाली चेरी ।














चेरी के औषधीय गुण: 1 चेरी में मौजूद क्यूर्सेटिन और बीटा कैरोटीन हृदय रोगों को रोकने में मदद करता है । 2. चेरी में पोटेशियम रक्त में मौजूद सोडियम को कम करता है जिससे रक्तचाप पर प्रभावी ढंग से नियंत्रिण होता है । चेरी के नियमित सेवन से कोलेस्ट्राल और रक्तचाप नियंत्रित रहते हैं । 3. चेरी में फिनोनिक अम्ल और फलेवोनोयड एंटी आॅक्सीडेंट शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं और कैंसर कोशिकाओं को बढ़ने से रोकते हैं । 4. चेरी में मौजूद एंथोसाइनिन गठिया की वेदना से राहत दिलाता है साथ ही यह शरीर में इन्सुलिन की मात्रा बढ़ाने के साथ साथ शर्करा की मात्रा को नियंत्रित रखता है जो कि मधुमेह के नियंत्रण का मुख्य कारण है । 5. चेरी में मौजूद मेलाटोमिन शरीर में रोग के कीटाणुओं को नष्ट करने में सहायक है । 6. चेरी का विटामिन सी कोलेजन और अन्य तन्तुओं को स्वस्थ्य रखता है एवं हडिडयों एवं दांतों को स्वस्थ्य रखने में सहायक है । 7. चेरी आंखों के लिए फायदेमंद है । लाल चेरी जिसमें विटामिन ए बहुतायत में होता है दृष्टि दोषों को दूर कर, नेत्र स्वस्थ्य रखता है । चेरी का नियमित सेवन मोतियाबिंद जैसे नेत्र विकारों को कम करता है । 8. चेरी वनज घटाती है क्योंकि इसमे कम वसा, अधिक पानी एवं घुलनशील फाइबर का अच्छा स्त्रोत होता है । आंतों द्वारा कोलेस्ट्रोल के अवशोषण की प्रक्रिया को धीमी करता है । 9. चेरी कब्ज रोकने मे मददगार है क्योंकि इसमे फाबर का अच्छा स्त्रोत है । गुर्दे और जिगर के लिए चेरी के पोषक तत्व क्लींजर का काम करते हैं । 10. चेरी में उपस्थित एंथोसियानिक रसायन याददाश्त बढ़ाने में मदद करता है । 















11. चेरी का  रस एथलीटों / व्यायामक करने वालों की मांसपेशियों के दर्द से राहत दिलाता है । एक स्वस्थ्य व्यक्ति को प्रतिदिन 50-100 ग्राम चेरी का सेवन आदर्श माना जाता है । 12.  चेरी शरीर के टोक्सिनस को दूर कर त्वचा को नरम, चमकदार, और अल्ट्रा वाॅयलेट किरणों से रक्षा करती है ।  चेरी के नियमित सेवन से त्वचा की समस्या से मुक्ति पाई जा सकती है । 13.  चेरी पेड़ के कुछ हिस्से छाल, पत्तियां और बीज औषधीय उपयोग में आते हैं । चेरी की पत्तियों की चाय सर्दी और खांसी के इलाज के लिए और चेरी के डंठल की चाय गुर्दे की बीमारियों के लिए लाभदायक है । चेरी जोड़ों के दर्द मंे भी लाभकारी सिद्ध हुई है । 14.  चेरी का जूसे पीने से नींद अच्छी आती है । भारत में इंसोनमिया (स्लीपलेसने) बिमारी से बहुत लोग शिकार है इसलिए उन्हें सलाह दी जाती है वे चेरी खांए या चेरी जूस पिये अच्छी नींद आवेगी । 15.  चेरी का जूस पीने से नींद अच्छी आती है । चेरी एसिडिटी से छुटकारा दिलाती है । इस फल के व्यंजनों तथा पेय पदार्थो की सजावट के तौर पर भी प्रयोग करते हैं । कोकटेल में इसका खूब उपयोग होता है । चेरी शेक, जूस और स्वादिष्ट पेय पदार्थ बनाए जाते हैं ।  चेरी कर सकता है डायबिटीज नियंत्रित - दिन में एक बार चेरी खाने से डायबिटीज निंयत्रित हो सकता है । इस मीठे और खटटे फल में विशेष तरीके का रसायन ‘‘ ऐन्थोसाइनिन ’’ पाया जाता है । यह रसायन ना सिर्फ चेरी को गहरे रंग का बनाया है बल्कि शरीर में इन्सुलिन की मात्रा बढ़ाने के साथ साथ रक्त में शुगर की मात्रा को नियंत्रित रखता है और हृदय से सम्बन्धी बीमारियों के खतरे को भी कम करता है ।
चेरी व्यंजन: तीखा एंड स्वीट चेरी पाई, चेरी पाई कप, चेरी क्रीम काॅफी केक, मिश्रित बेरी और चेरी, मलाईदार चाॅकलेट चेरी बार्स, ब्लूबेरी चेरी दही, ग्रील्ड चिकन और ताजा चेरी साल्सा, चेरी ब्राउन मक्खन बार्स, नारियल चेरी चाॅकलेट चिप आइसक्रीम, ताजा चेरी और डार्क चाॅकलेट ।
चेरी के फूलों को ‘‘ ब्लोसम’’ कहते हैं और जिन फूल के खिलने के बाद उस पेड़ पर फल नहीं लगते हों उन्हें ‘‘ब्लूम’’ कहते हैं । चीन में चेरी ब्लोसम को स्त्री की  सुन्दरता के समकक्ष देखा गया है और जापानी सभ्यता में चेरी ब्लोसम को जीवन में निहित, ‘‘ अपूर्णता में सौंदर्य ’’ के समकक्ष रखा गया है । द. कोरिया के जिन्हें कस्बे में करीब 3 लाख 40 हजार चेरी ब्लोंसम के पेड़ लगे है । हर साल 1-10 अप्रैल के बची सबसे बड़ा चेरी ब्लाॅसम फेस्टिवल मनाया जाता है जहां 10 लाख से ज्यादा पर्यटक आते हैं ।
इस फल के व्यंजनों तथा पेय पदार्थो की सजावट के तौर पर भी प्रयोग करते हैं । कोकटेल में इसका खूब उपयोग होता है । चेरी शेक, जूस और स्वादिष्ट पेय पदार्थ बनाए जाते हैं ।












चेरी के फेस मास्क - त्वचा में निखार लाने और डार्क स्पाॅट को हटाने में चेरी का जूस काफी असरदार होती है । इसमें एंटी इंलामेटरी गुण पाया जाता है जिससे मुहांसे की समस्या नहीं होती है । इसके अलावा चेरी माॅइस्चराइजर का काम भी करती है और क्षतिग्रस्त त्वचा को ठीक करती है । घर पर ही तैयार चेरी फेसियल मास्क - (1) जिसमें कुछ चेरी को मसल कर इसमें एक चममच शहद और कुछ बूंद नींबू मिलाकर आप चेरी फेस मास्क तैयार कर सकते हैं । इस पेस्ट को चेहरे और गले पर लगाएं और 15-20 मिनट के बाद गुनगुने पानी से धो लें । मुहांसे से छुटकारा पाया जा सकता है । (2) अगर आप 5 चेरी और 3 स्ट्राबेरी को अच्छे से मसल कर पेस्ट बना लें इसमें कुछ बूंदें गुलाब जल मिला कर 5 मिनट तक चेहरे, गले में लगाये रखें आपकी त्वचा जवान नजर आयेगी । (3) एक मुटठी चेरी को पीस कर इसमें 3 चम्मच साधारण दही मिला लें । इस पेस्ट को 20-30 मिनट तक चेहरे पर लगा कर रखें । इससे आपकी त्वचा में चमक आएगी । (4) एक चम्मच ओटमील में दो चम्मच चेरी जूस मिलाकर आप एक एक्सफोलिएटिंग चेरी फेस मास्क बना कर चेहरे पर 5 मिनट लगाकर रखें  और फिर अच्छे से धो लें । इससे चेहरे की डेड स्किन सेल्स हट जाएंगें ।  (5) एक अंडे की सफेदी में दो चम्मच काॅर्नमील, एक चममच शहद और करीब 10 चेरी को मसल कर मिला लें । इस मिश्रण को अपने चेहरे और गले पर लगाएं । 20 मिनट बाद इसे गुनगुने पानी से धो लें । चेरी उगाने का आसान तरीका - चेरी एक खटठा मीठा गुठलीदार फल है इसका रंग लाल, काला या पीला होता है । भारत में चेरी काश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड ओर उत्तरी पूर्वी राज्यों में पैदा किया जाता है ।  आप चाहें तो चेरी के बीज या फिर पौधे खरीद कर लगा सकते हैं । चेरी के बीज उस जगह पर लगाएं जहां पर पर्याप्त सूरज की रोशनी हो । पौधे को कम 5-6 का सूर्य प्रकाश मिलना चाहिए । ध्यान रहे कि मिटटी ज्यादा गीली ना हो वरना पौधा खराब हो जाता है । मीठी चेरी रोगों के लिए अतिसंवेदनशील होती है अगर ब्राउन राॅट बीमारी होने पर सल्फर का स्प्रे छिड़क दें । पौधों में एक दिन छोड़ का पानी देना चाहिए । जब चेरी के पौधे को साल भर हो जाए तब आप उसकी छंटाई  कर सकते हैं । 
















इन पौधों को फल देने में कम से कम 6 - 8 साल लग जाते हैं । चेरी की सफल बागवानी के लिये यह आवश्यक है कि अच्छी जल्द पकने वाली और देर तक खराब न होने वाली प्रजातियां ही पैदा की जानी चाहिये जिससे बाजार में अच्छा मूल्य प्राप्त हो सके ।  उदयान विशेषज्ञों  ने जिन प्रमुख चेरी की किस्मों की सिफारिश की है वे हैं ब्लैक टारटेरियम, बिंग, नैपोलियन, ब्लैक रिपब्लिकन, वैन, सैम, लैम्बर्ट एम्परर फ्रांसिस, अर्ली रिवर्स और ब्लैक हार्ट । स्टैला और लैपिन्स नामक दो अन्य प्रजातियां भी हैं जिनके फल सख्त होते हैं । चेरी का उत्पादन जातीय गुणों व आयु पर निर्भर है । एक पेड़ से औसतन 20 से 25 किलोग्राम चेरी पैदा होती है । बहुत कोमल और जल्दी खराब होने वाला फल होने के कारण चेरी को सावधानी से तोड़ना और डिब्बाबंद करना चाहिए । चेरी की बागवानी 1850 मीटर से 2500 मीटर तक ऊंचाई वाले स्थानी पर की जाती है । अप्रैल के पहले सप्ताह के आस-पास फूल आने के बाद ठीक दो मास बाद मई में इसका फल पककर तैयार हो जाता है ।

अष्टविनायक मंदिर - पौराणिक और धार्मिक महत्व

अष्टविनायक मंदिर- पौराणिक और धार्मिक महत्व

अष्टविनायक यात्रा में आठ गणेश मंदिरों की तीर्थयात्रा को महाराष्ट्र में बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है । तीर्थ गणेश के ये आठ पवित्र मंदिर स्वयं उत्पन्न और जागृत हैं । धार्मिक नियमों से तीर्थयात्रा शुरू की जानी चाहिए । यात्रा निकट मोरगांव से शुरू कर और वहीं समाप्त होनी चाहिए । पूरी यात्रा 654 किलोमीटर की होती है । पुराणों व धर्म ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि भगवान ब्रहमदेव ने भविष्यवाणी की थी कि हर युग में श्री गणेश विभिन्न रूप मंे अवतरित होंगें । कृतयुग में विनायक, त्रेतायुग में मयूरेश्वर, द्वापरयुग में गजानन एवं धूम्रकेतु नाम से कलयुग के अवतार लेंगे । भगवान गणेश के आठों शक्तिपीठ महाराष्ट्र में ही हैं । दैत्य प्रवृतियों के उन्मूलन हेतु ये ईश्वरीय अवतार हैं । मंदिरों के पौराणिक महत्व और इतिहास बताता है कि यहां विराजित गणेश प्रतिमाएं स्वयंभू मानी जाती हैं अर्थात यह मूर्तियां स्वयं प्रकट हुई हैं और इनका स्वरूप प्राकृतिक माना गया है । अष्ट विनायक की यात्रा से आध्यात्मिक सुख, आनंद की प्राति होती हैं । अष्टविनायक दर्शन की शास्त्रोक्त क्रमबद्धता इस प्रकार है ।
1.         श्री मयूरेश्वर मंदिर
2.         श्री सिद्धिविनायक (सिद्धटेक)
3.         श्री बल्लालेश्वर मंदिर
4.         श्री वरदविनायक मंदिर
5.         श्री चिंतामणी गणेश मंदिर
6.         श्री गिरिजात्मज अष्टविनायक
7.         श्री विघनेश्वर अष्टविनायक
8.         श्री महागणपति मंदिर








इन आठ पवित्र तीर्थ में 6 पुणे में हैं और 2 रायगढ़ जिले में है । जो भगवान गणेश को समर्पित कर रहे हैं जो अष्टविनायक मंदिरों की यात्रा करनी चाहिए । सबसे पहले मोरेगांव के मोरेश्वर की यात्रा करनी चाहिए और उसके बाद क्रम में सिद्धटेक, पाली, महाड, थियूर, लेनानडरी, ओजर, रन्जनगांव और उसके बाद फिर से मोरेगांव अष्टविनायक मंदिर यात्रा समाप्त करनी चाहिए ।

1.श्री मयूरेश्वर मंदिर - ज्ञान का हाथी , मंदिर पुणे से 80 किलोमीटर दूर स्थित है । मोरगांव गणेश मंदिर की पूजा का सबसे महत्वपूर्ण केन्द्र है । पौराणिक कथा के अनुसार भगवान गणेश ने दानव सिंधु से लोगों का बचाव किया था । मोरया गोसावी ने इस मंदिर के संरक्षण हैं आज मोरया गोसावी जो कि पेशवा शासकों के परिवार से है इसे व्यवस्थित कर रहे हैं । मोरेगांव मंदिर आठ श्रद्धेय मंदिरों की तीर्थ यात्रा का शुरूआती बिन्दु है तथा साथ ही तीर्थयात्री तीर्थयात्रा के अंत में मोरगांव मंदिर की यात्रा नहीं करता है तो तीर्थ अधूरा माना जाता है । मयूरेश्वर मंदिर में मुस्लिम वास्तुकला का प्रभाव दिखता है क्योंकि इसके निर्माण और संरक्षक के रूप में एक मुस्लिम मुखिसा उस समय था । मंदिर के चारों कोने मीनारों के के साथ एक लंबे पत्थर चारदिवारी से घिरे हैं । मंदिर के चार द्वार चार युगों की याद दिलाते हैं । 1. पूर्वी द्वार पर राम और सीता की छवि जो कि धर्म, कर्तव्य के प्रतीक के रूप में, 2. दक्षिणी द्वार पर शिव और पार्वती जो कि धन और प्रसिद्धि के प्रतीक के रूप में 3. पश्चिमी गेट पर कामदेव और रति जो कि इच्छा, प्रयार और कामुक खुशी के प्रतीक के रूप में और 4. उत्तरी द्वार पर वराह और देवी माही जो कि मोक्ष और शनि ब्रहम का प्रतीत मानी जाती हैं । 













मंदिर के द्वार पर एक बहुत बड़ी नंदी बैल की मूर्ति स्.थापित है जिसका मुंह भगवान की मूर्ति की तरफ है । यह नंदी भगवान शिव मंदिर ले जाया जा रहा था विश्राम के लिए उसे गणेश मंदिर पर रखा गया तो बाद में उसने वहां से जाने से मना कर दिया तब से आज नंदी और मूसा दोनों गणेश मंदिर के मुख्य द्वार के सरंक्षक माने जाते हैं । इस मंदिर में गणपति जी बैठी मुद्रा में विराजमान है तथा उनकी टंक बाई ओर की तरफ तथा चार भुजाएं एवं तीन नेत्र स्पष्ट प्रदर्शित हैं । गणेश मूर्ति के सामने गणेश के वराह मूसा एवं मोर हैं तथा गर्भगृह के बाहर नगना, भैरव हैं । मंदिर के विधानसभा भवन में गणेश के विभिन्न रूपों का चित्रण 23 विभिन्न मूर्तियों स्.थापित हैं । दिन में तीन बार सुबह 7 बजे, दोपहर 12 बजे और रात्रि 8 बजे पूजा की जाती है 









मयूरेश्वर दूर से एक छोटे किले की तरह दिखता है । मयूरेश्वर की मूर्ति के पास केवल मुख्य पुजारी को प्रवेश की अनुमति है । जिसमें गर्भगृह, गर्भगृह में है देवता विराजमान तीन आंखों , और अपने टंªक बांई ओर कर दिया है । आंखें और देवता की नाभि कीमती हीरों से जड़ी हुई है । सिर पर नागराज की नुकीले देखी जा सकती हैं । गणेश मूर्ति सिद्धि और बुद्धि की पीतल की मूर्तियों से घिरे हुए है । मूर्ति पर 100-150 साल तक सतत अभिषेक एवं सिंदूर  से वास्तवित मूर्ति से यह बहुत बड़ी दिखने लगी है । मुख्य द्वार गर्भगृह में देवता का सामना एक कछुआ और एक नंदी से होता है । हिन्दू मिथक के अनुसार मयूरेश्वर के मंदिर में भगवान गणेश द्वारा सिंधुरासुर नामक एक राक्षस की हत्या से संबंधित है । सभी देवताओं को सिंधु के कहर से बचाने के लिए भगवान गणेश से प्रार्थना की और भगवान गणेश मोर पर सवार होकर युद्ध में राक्षस सिंधु का नाश किया और बाद में मोर को भाई स्कंद को भेंट कर दिया ।















2. सिद्धिविनायक गणपति - अष्ट विनायक मंदिर तीर्थयात्रा के दौरान यह दूसरा गणेश मंदिर है जो भीम नदी के तट पर स्थित है । यह पुणे से 200 किलोमीटर दूर सिद्धटेक के गावं में स्थित है । सिद्धिटेक पर्वत पर भगवान विष्णु ने सिद्धि हासिल की थी इसलिए यहां भगवान गणेश की ऐसी मूर्ति सिद्धविनायक के रूप में कहा जाता है । पुणें में सबसे पुराने मंदिरों में से एक है । यह मंदिर 200 से अधिक साल पुराना है । मूल मंदिर श्रीमंत नानासाहेब  द्वारा 1753 में पेशवा राजवंश ने निर्माण किया गया था । पुणे में और आसपास श्रद्धालुओं के लिए यह एक जबरदस्त आस्था और भक्ति है । यह गणपति आपके सभी इच्छाओं को पूरा करने के लिए जाना जाता है और के रूप में जाना जाता है । सिद्धिटेक में सिद्धिविनायक अष्टविनायक मंदिर एक बहुत शक्तिशाली देवता माना जाता है यह वह जगह है जहां भगवान विष्णु ने सिद्धी हासिल की थी । सिद्धटेक में सिद्धि विनायक की मूर्ति स्वयंभू यानि स्वयं अवतीर्ण और पीतल फ्रेम में है । हम सिद्धि विनायक के दोनों किनारों पर जय और विजय की पीतल की मूर्तियां देख सकते हैं । मंदिर के गर्भगृह में देवी शिवाय का छोटा सा मंदिर है । सिद्धिविनायक मंदिर पहाड़ी की चोटी पर बना है जिसका मुख्य द्वार उत्तर दिशा की ओर है । मंदिर का हाॅल जो कि 15 फुट ऊंचा और 10 फुट चैड़ा है जिसे महारानी अहिल्याबाई होलकर ने बनवाया था । सिद्धिविनायक मंदिर की परिक्रमा के लिए पहाड़ी की गोल यात्रा करनी पड़ती है जिसमें लगभग 30 मिनट लग जाते हैं । इस मंदिर में गणेश की मूर्ति 3 फीट ऊंची और ढाई फीट चैड़ी और जो कि उत्तर दिशा की ओर मुख किए हैं । भगवान गणेश की टंªक सीधे हाथ की तरफ है और इस गणेश की गतिशील रूप माना जाता है ।














3.श्री बल्लालेश्वर मंदिर अपने भक्त का नाम और जो एक ब्राहम्ण की तरह कपड़े पहने है । यह मंदिर गोवा राजमार्ग पर नागोथाने से पहले से 11 किलोमीटर, मुंबई पुणे हाइवे बांद, पाली से टोयन में स्थित है । एक लड़का बल्लाल भगवान गणेश का प्रबल भक्त था । एक दिन उसने अपने पाली गांव में एक विशेष पूजा का आयोजन किया जिसमें भाग लेने के लिए गांव के सभी बच्चों को आमंत्रित किया और पूजा कई दिनों तक चली , समपिर्त बच्चों बल्लाल की पूजा के पूरा होने से पहले घर लौटने से इन्कार कर दिया । इससे बच्चों के माता पिता नाराज होकर बल्लाल के पिता कल्याणी सेठ से शिकायत की तो उन्होंने जगंल जाकर जहां यह पूरा चल रही थी भगवान गणेश की मूर्ति को एवं बल्लाल को पीटा एवं गंभीर हालत में जंगल में फेंक दिया । 



पर भक्त बल्लाल गणेश जप करता रहा तब गणपति ने दर्शन दिये तो बालक बल्लाल ने इसी गांव में निवास का आग्रह किया तब भगवान गणेश ने अपनी सहमति दी और कहा कि यह स्थान एवं मंदिर बल्लाल के नाम से ही जाना जाएगा । बल्लालेश्वर पाली पहुंचने के लिए जो कि रायगढ़, तालुका सुधागढ़ में स्थित है । पाली कर्जत से लगभग 50 किलोमीटर की दूरी पर है । यह स्थान खोपोली पूणे से 80 किलोमीटर की दूरी पर है । भगवान गणेश एक बहुत लोकप्रिय देवता हैं । भगवानों में सबसे पहला और सबसे महत्वपूर्ण अधिकार भगवान गणपति की पूजा का है । गणपति सभी बाधाओं और दर्द को दूर कर भक्त की इच्छाओं की पूर्ति कर खुशी प्रदान करते हैं । गणपति को बुद्धि और कला का भगवान माना जाता है ।













4.श्री वरदविनायक  ’- देवताओं में प्रथम पूजनीय भगवान श्री गणेश का ही एक रूप हैं । मंदिर महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले के कोल्हापुर तालुका में एक सुन्दर पर्वतीय गाँव महाड में स्थित है । इस मंदिर की मान्यता है कि यहां वरदविनायक गणेश अपने नाम के समान ही सारी कामनाओं को पूरा होने का वरदान देते हैं । प्राचीन काल मंे यह स्थान ‘‘ भद्रक ’’ नाम से भी जाना जाता था । इस मंदिर में नंददीप नाम से एक दीपक निरंतर प्रज्जवलित है, यक सन् 1892 से लगातार प्रदीप्यमान है । कथा - पुष्पक वन में गृत्समद षि के तप से प्रसन्न होकर भगवान गणपति ने उन्हें ‘‘ गणनां त्वां ’’ मंत्र के रचयिता की पदवी यहीं पर दी थी और ईश देवता बना दिया । उन्हीं वरदविनायक गणपति का यह स्थान है । वरदविनायक गणेश का नाम लेने मात्र से ही सारी कामनाओं को पूरा होने का वरदान प्राप्त होता है । वरदविनायक चतुर्थी का साल भर नियमानुसार व्रत करने से सम्पूर्ण मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती है । प्रति माह कि शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को मध्याहन के समय वरदविनायक चतुर्थी या वैनाय की चतुर्थी का व्रत किया जाता है । वैनाय की चतुर्थी में गणेशजी की षोडशोपचार विधि से पूजा-अर्चना करने का विधान है । पूजन में गणेशजी के विग्रह को दूर्वा, गुड़ या मोदक का भोग , सिंदूर या लाल चंदन चढ़ाना चाहिए एवं गणेश मंत्र का 108 बार जाप करें ।














5. चिंतामणि गणपति (थेयूर) - यह मंदिर हवेली तालुका जो पुणे जिले में पवित्र स्थान जो कि तीन नदियों के संगम,  भीम ,मुला और मुथा पर स्थित है । यह पांचवा अष्टविनायक मंदिर है । अगर आप खुशिओं की तलाश में हैं और आपका मन विचलित रहता हो और चिंताएं आपको घेरे रहती हों तो आप थेयूर आएं और श्री चिंतामणि गणपति की पूजा करें सभी चिंताओं से मुक्ति मिल जाएगी । भगवान ब्रहमा ने अपने विचलित मन को वश में करने के लिए यहां पर तपस्या की थी ।


कथा - राजा अभिजीत और रानी गुनावती ने पुत्र प्राप्ति के लिए ऋषि वैशम्पायन की सलाह पर कई वर्षो तक तप किया उन्हें एक बेटा जिसका नाम गणराजा रखा गया, जो बहुत बहादुर पर गुस्सेवाला था एक शिकार अभियान में उसे ऋषि कपिला के आश्रम में रूकना पड़ा । बाबा कपिला ने गणराजा का स्वागत किया साथ ही पूरी सेना को दोपहर के भोजन के लिए आमंत्रित किया । भगवान इंद्र ने ऋषि कपिला को चिंतामणि दी थी जिससे जो मांगों वह बात पूरी होती थी । चिंतामणि की शक्ति को देख लालची गणराजा ने ऋषि कपिला से उसे देने को कहा पर उन्होंने मना कर दिया तब गणराजा ने बलपूर्वक उनसे चिंतामणि छीन ली । बाबा कपिला निराश होकर देवी दुर्गा की सलाह से भगवान गणेश की पूजा करने लगे तब गणेश ने प्रसन्न होकर गणराजा से युद्ध कर चिंतामणि वापस ले ली और राजा अभिजीत को दी, पर जब उन्होंने चिंतामणि बाबा कपिला को लौटाना चाही तो उन्होंने उसे लेने से इंकार कर दिया । भगवान गणेश और गणराजा के बीच युद्ध एक कंदब के पेड़ के पास हुई तभी से इस गावं का नाम कदंब तीर्थ पड़ गया । मंदिर - मंदिर का मुख्य द्वार उत्तर दिशा की ओर है । मंदिर का हाॅल लकड़ी से बना है और हाॅल में काले पत्थर से बना एक छोटा सा फुब्बारा है । मंदिर की एक बड़ी घंटी मुख्य मंदिर के बाहर से देखी जा सकती है ।









6. श्री गिरजात्मज गणपति मंदिर - गिरितात्म अष्ट विनायक मंदिर तीर्थ यात्रा पर दौरा किया छठे भगवान गणेश मंदिर है । यह एक पहाड़ पर है और बौद्ध गुफाओं के स्थान पर बनाया गया है । एक मात्र मंदिर है इधर भगवान गणेश गिरिजात्माजा के रूप में पूजा जाता है । लेनयादरी पहाड़ पर 18 बौद्ध गुफाओं में से 8वीं गुफा में गिरजात्मज विनायक मंदिर है । इन गुफाओं को गणेश गुफा कहा जाता है । मंदिर तक पहुंचने के लिए 307 सिढ़ियों चढ़नी पड़ती हैं । पूरा मंदिर ही एक बड़े पत्थर को काट कर बनाया गया है । 






मंदिर का मुख्य द्वार दक्षिण की ओर है । मुख्य मंदिर के सामने एक विशाल सभामंडप जो 53 फीट और 51 फीट का है जिसमें कोई भी स्तंभ नहीं है । इस हाॅल में 18 छोटे छोटे अपार्टमंेट हैं और श्री गिरिजात्मक विनायक की मूर्ति मध्य के अपार्टमेंट में स्थापित  किया गया है । भगवान गणेश की छवि उसके सिर बाईं और कर दिया साथ, एक चट्टान में नक्काशीदार बाहर एक फ्रेस्को है ।  मुख्य मंदिर की ऊंचाई केवल 7 फीट है जिसमें 6 स्तंभ है जिनमें गाय, हाथी आदि की आकृति उकेरी गई है । 










मुख्य मंदिर से एक नदी बहती है जिसके किनारे पर जूनार शहर बसा है । मंदिर में कोई बिजली का कनेक्शन नहीं है । मंदिर का निर्माण इस तरह किया गया है कि मंदिर में दिन भर सूर्य की किरणों से प्रकाश रहता है । यह जगह गणेश पुराण में  जिरनापुर या लेखन पर्वत गणेश पुराण के रूप में जाना जाता है । गिरिजात्मज विनायक मंदिर सहित सभी 30 लेनयादरी गुफाएं भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के नियंत्रण में हैं । गिरिजात्मज विनायक पार्वती के पुत्र के रूप में गणेश को दर्शाता है । यह मंदिर पुणे नासिक राजमार्ग पर पुणे से करीब 90 किलोमीटर दूर है जो नारायणगांव से 12 किलोमीटर की दूरी पर है । यहां मूर्ति एक अलग मूर्ति नहीं है । लेकिन मूर्ति का केवल एक ही आंख से देखा जा सकता है जिसमें से गुफा का एक पत्थर की दीवार पर उकेरी गई है । गिरजात्मज सचमुच गणेश गिरिजा (देवी पार्वती) के बेटे का मतलब है ।













7.विघनेश्वर गणपति मंदिर (ओजर) - ज्ञान का हाथी , जिसे 1785 में बनाया गया था और 1967 में श्री आपाशास्त्री जोशी द्वारा फिर बनाया गया ।  ओजर पुणे जिले में जूनर तालुका में है यह पुणे नासिक रोड पर नारायणगावं से जूनर या ओजर होकर 85 किलोमीटर की दूरी पर है । ओजर अष्टविनायक सातवें मंदिर के लिए निर्धारित है । मंदिर विघनेश्वर कुकदेश्वर नदी के तट पर ओजर में है । कथा के अनुसार हेमावती के राजा अभिनन्दना ने एक महान बलिदान प्रदर्शन इंद्र की गददी पाने के लिए किया तो इंद्र ने विघनसुर को बाधा डालने के लिए बुलाया जिसने संतों और दूसरो लोगों को भी परेशान करने लगा तब लोगों के गणपति से अनुरोध किया गणपति ने विघनासुर को परासत किया और विघनासुर गणपति के चरणों में गिर कर आग्रह करने लगा कि उनके साथ उसका नाम लोगों ने लेना चाहिए । विनायक ने उसके अनुरोध को स्वीकार कर उस स्थान को विधनेश्वर या विघनराज के रूप में कहा जाने लगा ।















पौराणिक कथा के अनुसार विघनासुर नामक दानव संतों को बहुत परेशान कर रहा था गणपति से अनुरोध करने पर उन्होंने उसे रोका तो दानव ने अपने नाम के साथ गणपति को स्वीकार करने का आग्रह किया इसलिए यह मंदिर विघनेश्वर, विघनहर्ता, और विधनहार के रूप में जाना जाता है । यह मंदिर सबसे खूबसूरत मंदिरों में से एक है । मुख्य द्वार के दोनों तरफ दो गार्ड दिखते हैं, एक भव्य प्रवेश द्वार के बाहर एक विशाल आंगन निहित है । मंदिर नाजुक चित्रों ओर नक्काशिंयों से सजा है । भगवान की मूर्ति के बाईं ओर टंªक जबकि चेहरा पूर्व की ओर है, मूर्ति की आंखें कीमती रत्नों से बनी हैं उनके माथे और नाभि को हीरे और अन्य रत्नों से सजाया गया है । मूर्ति के दोनों तरफ रिद्धी और सिद्धी की पीतल की मूर्तियां हैं । मंदिर का मुख्य द्वार पूर्व दिशा को तथा सुरक्षात्मक दृष्टि से सभी चारों पक्षों पर मजबूत किलेबंदी की है मंदिर को बड़े बड़े पत्थरों की दीवार से चारों ओर से घिरा है तथा प्रवेश द्वार पर दो दीप मालाएं (तेल के लैंप के लिए पत्थरों के खम्भों पर) और दो विशाल द्वार पलकस यानि गार्ड दिखते हैं । मुख्य मंदिर दो हाॅल दुंदीराज की मूर्ति के साथ और अन्य सफेद संगमरमर से बना जिसमें पंचयातन यानि सूर्य, शिव, विष्णु, देवी, और गणपति) की मूतियों एवं मंदिर के स्वर्ण गुंबद और शिखर हैं । 












विघनेश्वर मंदिर 1833 में बनाया गया था और अपनी अनूठी विशेषता चिमाजी अप्पा, बाजीराव पेशवा के छोटे भाई द्वारा दान धन के साथ बनाया गया जिसमें कहा जाता है कि एक शानदार सुनहरा स्र्वण गुंबद है । मुख्य द्वार सभामण्डप के प्रवेश द्वार पर  मूसे की एक मूर्ति है । इस मंदिर में गणपति मूर्ति विघनेश्वरा सभी बाधाओं को दूर करने के लिए अवतार लिया है । इस मंदिर के देवता की पूजा से लोगों की सभी समस्याओं का हल उन्हें मिल जाता है । मंदिर विघनेश्वर अपनी शानदार भिति और मूर्तिकला काम के लिए जाना जाता है । भव्य प्रवेश द्वार, एक बड़ा आगन और ध्यान के डिजाइन किए हुए छोटे कमरे हैं । ओजर कुकादी नदी के तट पर है और नदी पर बना येदागांव बांध के पास है ।

8. महागणपति (रांजणगाँव) - मंदिर इतिहास के अनुसार 9वीं और 10वीं सदी के बीच बना था । माधवराव पेशवा भगवान गणेश की मूर्ति रखने के लिए मंदिर के तहखाने में एक कमरा बनाया है बाद में इंन्दौर के सरदार किबे पर यह पुर्निर्मित नगरखाना प्रवेश द्वार के ऊपर स्थित है , मुख्य मंदिर पेशवा की अवधि से मंदिर की तरफ दिखता है । मंदिर का प्रवेश द्वार पूर्व दिशा की ओर है और एक विशाल सुन्दर प्रवेश द्वार बना है । भगवान गणपति की मूर्ति को  ‘‘ माहोतक’’ नाम से भी जाना जाता है क्योंकि इसके 10 टंªक (सूंड़) और 20 हाथ हैं । 




यह मूल मूर्ति को मंदिर के एक तहखाने में छिपाया हुआ है क्योंकि मुस्लिम आक्रमण के भय से । यह मंदिर पुणे से रंजनगाँव में पुणे अहमदनगर राजमार्ग पर 50 किलोमीटर की दूरी पर है । यह स्थान दानव त्रिपुरासुर के किलों को नष्ट करने में शिव की मदद के लिए आए थे । सूर्य की किरणें सूर्य उगते ही सीधी मूर्ति पर आती हैं । श्री अष्टविनायक गणपतियों में महा गणपति भगवान गणेश का सबसे शक्तिशाली प्रतिनिधित्व है । शिव दानव त्रिपुरासुर को परास्त किया था इसलिए इन्हें त्रिपुरारी  महा गणपति के रूप में भी  जाना जाता है । यहां इन्हें आठ, दस या बारह हथियारों के साथ होने वाले रूप में दिखाया गया है ।
























Friday 27 June 2014

बेर - सस्ता लोकप्रिय फल

बेर - सस्ता लोकप्रिय फल

बेर भारत का बहुत ही प्राचीन एवं लोकप्रिय फल है । सस्ता एवं लोकप्रिय फल होने के कारण इसे गरीबों का मेवा भी कहा जाता है । बेर कई रंगों पीले, हरे, लाल, बैंगनी, और गहरे कथई के होते हैं । बेर की विशेषताएं- पका बेर बहुत मीठा, ज्यूसी व नरम होता है । बेर में छिपा है सेहत का खजाना । बेर कई रंगों में जैसे पीला, हरा, लाल, बैंगनी, गहरा कथई में पाए जाते हैं । गोल और अंडाकार आकार वाले बेर होते हैं । बेर का पेड़  एक साल में 50 से 250 किलो बेर दे सकता है । बेर का पेड़ 7-12 मीटर लम्बा हो सकता है जिसकी आयू 25 साल तक होती है । बेर के फल, पत्तियों, वृक्ष की छाल, गौंद में औषधीय गुण पाये जाते हैं जिनका पारंपरिक भारतीय चिकित्सा और आर्युवेद में उपचरात्मक खाद्य पदार्थ के रूप में उपयोग किया जाता है ।  बेर का लेटिन नाम जिजिफस मौरीशियाना है ।














बेर के औषधीय गुण: बेर हमारे लिए एक बहुउपयोगी और पोषक फल है इसमें विटामिन ए और विटामिन सी की प्रचुर मात्रा होती है । बेर ठंडा, रक्त रोधक, नेत्र ज्योति बढ़ाता है । रक्तातिसार और आंतों के घाव ठीक करता है । भूख और वीर्य बढ़ाता है । त्वचा में कट या घाव होने पर फल का गूदा घिसकर लगाने से कटा हुआ स्थान जल्दी ठीक हो जाता है । फेफड़े संबधी बीमारियों व बुखार ठीक करने के लिए इसका ज्यूस अत्यन्त गुणकारी है । बेर को नमक और काली मिर्च के साथ खाने से अपच की समस्या दूर होती है । सूखे बेर खाने से कब्जियत दूर होती है । बेर को छाछ के साथ लेने से भी घबराना, उल्टी होना व पेट में दर्द की समस्या खत्म हो जाती है । बेर की जड़ों का ज्यूस की थोड़ी मात्रा में पीने से गठिया एवं वात जैसेी बीमारियों को कम किया जा सकता है । बेर के शरीर के लिए अत्यंत लाभदायक व स्वास्थ्यवर्धक होने के साथ आम आदमी की पहंुच में है । हर वर्ग का व्यक्ति इसे आसानी से उपयोग में ले सकता है । बेर में शर्करा, विटामिन सी, विटामिन ए , फाॅस्फोरस व कैल्शियम प्रचुर मात्रा में पाया जाता हे । बेर को पकाकर, बैक कर व उबालकर चावल या अन्य अनाज के साथ चटनी बनाकर खाया जाता है । बेर के पेड़ का तना मजबूत होने के कारण इसकी लकड़ी नाव, औजार, घर के खंबे, खिलौने आदि बनाने के काम आते हैं । 












बेर की किस्मे - गोला, इलायची, नाजुक, फल मक्खी, बनारसी, नरमा, नागपुरी, पैबन्दी, महरूम, सफेदा, सौनार, मुड़या, उमरान, पोंडा, अजूबा, फेसलाबाद, महमूदबली, अनोखी, आल्ूाबुखारा, पाक व्हाइट इत्यादि । पौराणिक एवं धार्मिक महत्व: 1. गुरूद्वारा श्री बेर साहिब -गुरूनानक देव ने सुल्तानपुर लोधी टाउन जिला  (पंजाब) में काली बेन नदी के किनारे बैठ कर 14 साल 9 महीने 13 दिन तपस्या की और पवित्र गं्रथ सुखमनी साहब का सृजन किया तथा बेर का झाड़ लगाया जिसे बदरी कोल कहते हैं आज भी गुरूद्वारा बेर साहिब के नाम से प्रसिद्ध है । स्वर्ण मंदिर परिसर में तीन पवित्र वृक्ष हैं । बेर बाबा बुडढ़ा इन्हीं में से एक है । वहीं लाची बेर और दुख भंजनी दो अन्य वृक्ष है । अमृत सरोवर के उत्तरी किनारे पर स्थित इस जुजुबे वृक्ष का नाम एक सिक्ख संत बाबा बुडढा के नाम पर पड़ा है । बाबा बुडढा इसे पेड़ की छाया में बैठ कर तालाब की खुदाई पर नजर रखते थे । स्र्वण मंदिर के ठीक सामने स्थित बेर बाबा बुडढ़ा घूमे बिना इस तीर्थस्थल की यात्रा अधूरी मानी जाती है ।      2. शबरी के बेर - शबरी जाति की भीलनी का नाम था श्रमणा, बाल्याकाल से ही वह भगवान श्री राम की अन्नय भक्त थी मतंग ऋषि के आश्रम के बाहर बैठ राम का इंतजार करने लगी जब भगवान राम सीता की खोज में मंतग ऋषि के आश्रम पहुंचे  तब शबरी के कंद मूलों को भगवान को अर्पण किया पर बेर खराब और खटटे न निकलें इसलिए उसने बेरों को चखना आंरभ किया तथा मीठे बेर राम को दिये राम ने निसंकोच बड़े प्रेम से शबरी के जूठे बेर खाएं श्रमणा स्वर्ग गई । श्री श्रमणा रामायण में शबरी के नाम से प्रसिद्ध है ।












बेर हमारे लिए एक बहुपयोगी एवं पोषक फल है । मौसमी फलों में सभी वर्गों में यह बहुत लोकप्रिय है । पोषकता के आधार पर इसे सेव फल के अनुरूप ही पाया जाता है । बेर का वृक्ष उन खराब तथा कम उपजाऊ भूमि में भी पैदा हो जाता है जहां पर अन्य फल वृक्ष नहीं उग पाते हैं । बेर को शुष्क और अर्धशुष्क जलवायु वाले भागों में सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है । बेर का वृक्ष 2-3 वर्ष का होेने पर फल देना शुरू कर देता है , 9 से 10 वर्ष आयु वाले बेर की कलमी पौधे 15-25 किलोग्राम प्रति पौधा फल दे देते हैं । बेर (जिजिफस मौरिटिआना एल) देश कके अर्द्ध शुष्क और शुष्क क्षेत्रों में लगाया जाने वाला महत्वपूर्ण फल है । बैर एक पौष्टिक फल है, जिसमें विटामिन बी समूह की मात्रा (थायमीन, राबोलेविन और नियासिन) , विटामिन सी औ बीटा कैरोटीन की मात्रा भरपूर है, जो विटामिन ए के लिए अग्रदूत है । यह फास्फोरस, कैल्शियम और लोहे जैसे खनिज से भी समृद्ध है । .रेगिस्तानी इलाके में पथरीले इलाके में बिना पानी के इलाके में बीहड़ बंजर स्थानों पर बेर की उत्पत्ति होती है ।






देश के विभिन्न प्रदेशा में उगाई जाने वाली बेर की किस्में ।
उत्तर -प्रदेश -  बनारसी कडाका, बनारसी, पैवन्दी, नरमा, अलीगंज
बिहार   - बनारसी, नागपुरी, पैवन्दी, थोर्नलैस
महाराष्ट्र    - कोथो, महरूम, उमरान
आन्ध्रप्रदेश - बनारसी, दोढया, उमरान
पंजाब , हरियाणा -  उमरान, कैथली, गोला, सफेदा, सौनोर-2, पौंडा
राजस्थान  - सौनोर, थौर्नलैस
दिल्ली   -  गोला, मुड़या, महरेश, उमरान, पोंडा






Akita – Handsome guard dog

Akita – Handsome guard dog

Akita is a large spitz breed of dog originating from the mountainous northern regions of Japan. Two varities are popular, 1. Japanese strain known as the “ Akita Inu or Japanese Akita. And 2. American strain known as the Akita or American Akita. The Akita is a powerful, independent and dominant breed, commonly aloof with strangers but affectionate with family members. Akitas are generally hardy. Japanenes Akita- is the one of the oldest of the native dog of Japan. Akita developed primarily from dogs in the northern most region of the Island of Honshu in the Akita prefecture. The breed is also influenced by crosses with larger breeds from Asia and Europe, including English Mastiffs, Great Danes, St, Bernards and the Tosa Inu. During  World War II the Akita  was also crossed with German Shephered dogs. The ancestors of the American Akita were originally a variety of the Japanese Akita , a form that was not desired in Japan due to the markings. 













Akita were bred for a standardized appearance. Akita breeders and fanciers producing litters to accentuate the original characteristics of the breed. American Akita – American Akita began to diverge in type during the post-World War II.American Akita generally are heavier boned and larger with a more bear- like head. Whereas Japanese Akita tend to be lighter and more finely featured wia a fox- like head. Akita was first introduced to the UK in 1937. The breed was Introducted in Australia in 1982 with an American import and to New Zealand in 1986. The Akita breed have a large, bear like head with erect, triangular ears set at a slight angle following the arch of the neck, eyes are small, deeply set and triangular in shape. Akitas have thick double coats and tight well knuckled cat-like feet. The Akita Inu is handsome, calm, dignified, clean and quiet in nature. 












Akitas can be so aggressive with other dogs. Training to Akita can be a challenge because Akita Inu is assertive , strong-willed and bored easily, and he may use his intelligence in ways that suits his own purposes. Akita Inu doesn’t require hours of running exercise. He does well with long brisk walks and an occasional vigorous run, especially in cold weather. Akitas love snow and cold. Akitas are very family oriented and are not happy when kept apart from the family. The Akita heat cycle is a bit different than with other breeds. The Akita is an adult , the age of at least 3 years. Breeding Akitas will differ than any other breed, mainly because of the environment and the space that will be needed. Mating should never be done in hot weather, mating should never be done after the male has just eaten, never muzzle the male. The liter size ranges from 3 yo 12 puppies  with an average of 7 or 8 puppies.












Life expectancy is 10 to 12 years . This is the same for both the Japanese and the American Akitas.  The Japanese Akita is white, red or brindle. The colours of the American Akita can be any of a wide variety. Most will be a 2 or 3 part combination of the following. Black, Black Brindle, Brown, Brown Brindle, Fawn, Pinto, Red, Red Brindle, Silver, Silver Brindle . The Akita size is not clear cut and simple. The height ranges from 24” to 28” tall at the shoulder. The weight of male is 90-140 pounds, and female 70 to 100 pounds. Akita ears is the issue of floppy versus erect ears. The an adult Akita ears should be erect.











All Akitas both Japanese and American do have fully webbed feet. This allows them to swim on the surface of water quiet like an other is able to.  The use both their from and rear feet as opposed to the typical “ doggie paddle” of only using front paws as most other canines will do. Purebreds will have brown eyes, with a deep dark brown being desired. They are small, deep-set and with a very distinct triangle shape. Every dog breed is prone due to genetics, to certain health problems.Akita breed unfortunately is very sensitive to medications. Some diseases like Microcytosis, Autoimmune hypothyroiditis, Bloat, Arthritis and Von Willebrand’s Diseases.