Saturday, 19 July 2014

स्वस्तिक- शुभ कार्य प्रतीक चिंह


स्वस्तिक- शुभ कार्य प्रतीक चिंह





स्वस्तिक का आविष्कार आर्यों ने किया और पूरे विश्व में यह फैल गया । आज स्वस्तिक का प्रत्येक धर्म और संस्कृति में अलग-अलग रूप में इस्तेमाल किया गया है । स्वस्तिक को भारत में ही नहीं, अपितु विश्व के अन्य कई देषों में विभिन्न स्वरूपों में मान्यता प्राप्त है । जर्मनी, यूनान, फ्रांस, रोम, मिस्र, ब्रिटेन, अमेरिका, स्कैण्डिनेविया, सिसली, स्पेन, सीरिया, तिब्बत, चीन, साइप्रस और जापान आदि देशों में भी स्वस्तिक का प्रचलन किसी न किसी रूप में मिलता है ।












स्वस्तिक शब्द का को ‘‘सु’’ एवं ‘‘अस्ति’’ का मिश्रण योग माना जाता है । ‘‘सु’’ का अर्थ है शुभ और ‘‘अस्ति’’ का अर्थ है - होना अर्थात ‘‘शुभ हो’’ , ‘‘कल्याण हो’’ अर्थात कुशल एवं कल्याण । हिन्दू धर्म में स्वस्तिक को शक्ति, सौभाग्य, समृद्धि और मंगल का प्रतीक माना जाता है । हर मंगल कार्य में इसको बनाया जाता है । स्वस्तिक का बांया हिस्सा गणेश की शक्ति का स्थान ‘ग’ बीजमंत्र होता है । इसमें जो चार बिंदियां होती हैं , उनमें गौरी, पृथ्वी, कच्छप और अनंत देवताओं का वास होता है । इस मंगल प्रतीक का गणेश की उपासना, धन, वैभव और ऐष्वर्य की देवी लक्ष्मी के साथ, बही-खाते की पूजा की परंपरा आदि में विशेष स्थान है । इसकी चारों दिशाओं के अधिपति देवताओं, अग्नि, इन्द्र, वरण एवं सोम की पूजा हेतु एवं सप्तऋषियों  के आशीर्वाद को प्राप्त करने में प्रयोग किया जाता है । यह चारों दिशाओं और जीवन चक्र में भी प्रतीक है । घर के वास्तु को ठीक करने के लिए स्वस्तिक का प्रयोग किया जाता है । स्वस्तिक के चिन्ह को भाग्यवर्धक वस्तुओं में गिना जाता है । स्वस्तिक के प्रयोग से घर की नकारात्मक ऊर्जा बाहर चली जाती है ।
जैन धर्म के चैबीस तीर्थंकर और उनके चिन्ह में स्वस्तिक को शामिल किया गया है । तीर्थंकर सुपाष्र्वनाथ का शुभ चिन्ह है स्वस्तिक जिसे साथिया या सातिया भी कहा जाता है । जैन धर्म में स्वस्तिक की चार भुजाएं चार गतियों - नरक, त्रियंच, मनुष्य एवं देव गति की द्योतक हैं । जैन लेखों से संबंधित प्राचीन गुफाओं और मंदिरों की दीवारों पर यह स्वस्तिक प्रतीक अंकित मिलता है । ईसाई धर्म में स्वस्तिक क्राॅस के रूप में चिहिन्त है । एक ओर जहां ईसा मसीह को सूली यानि स्वस्तिक के साथ दिखाया जाता है तो दूसरी ओर यह ईसाई कब्रों पर लगाया जाता है । स्वस्तिक को ईसाई धर्म में कुछ लोग पुर्नजन्म का प्रतीक मानते हैं ।
यूरोप में स्वस्तिक को सूर्यदेव का प्रतीक मानते थे उनके अनुसार स्वस्तिक यूरोप के चारों मौसम का भी प्रतीक था बाद में यह चक्र या स्वस्तिक ईसाइसत के    अपनाया । ईसाइयत में स्वस्तिक पुनर्जन्म का प्रतीक भी माना गया है ।
स्वस्तिक मंत्र:
स्वस्तिक मंत्र शुभ और षान्ति के लिए प्रयुक्त होता है । ऐसा माना जाता है कि इससे हृदय और मन मिल जाते हैं । मंत्रोच्चार करते हुए दर्भ से जल के छींटे डाले जाते थे तथा यह माना जाता था कि यह जल पारस्परिक क्रोध और वैमनस्य को शांत कर रहा है । गृह निर्माण के समय स्वस्तिक मंत्र बोला जाता है । खेत में बीज डालते समय मंत्र बोला जाता था कि विद्युत इस अन्न को क्षति न पहुंचाए । पशुओं की समृद्धि के लिए भी स्वस्तिक मंत्र का प्रयोग होता था जिससे उनमें कोई रोग नहीं फैलता था । गायों को खूब संतानें होती थी । पुत्र जन्म पर स्वस्तिक मंत्र बहुत आवश्यक माने जाते थे इससे बच्चा स्वस्थ रहता था , उसकी आयु बढ़ती थी और उसमें शुभ गुणों का समावेश होता था ।














मंगल चिन्ह: शुभ है स्वस्तिक
पुराणों में कथन है कि महिलाएं अपने आभूषणों जैसे हार, कंगन और कुंडलों आदि में इसे मंगल चिन्ह वाले गहने को मंगलवार के दिन धारण करें उनकी कामनाएं श्री ब्रहमा जी अवश्य पूरी करते हैं ।
स्वस्तिक वास्तव में समृद्धि का सूचक है । संस्कृत में इस शब्द का अर्थ ही होता है समृद्धि या अक्षय जीवन ऊर्जा । जर्मन नाजियों ने सबसे पहले उसका व्यापक तौर पर इस्तेमाल करना शुरू किया । कनाडा में तो स्वस्तिक नाम का एक शहर भी है । समृद्धि के प्रतीक के रूप में दुनिया के बहुत से देशों की जातियां स्वस्तिक का उपयोग करती रही हैं ।
स्वस्तिक चित्र के बारे में
ऽ            .चित्रा - 27 नक्षत्रों में मध्यवर्ती तारा है जिसका स्वामी इंद्र है, वही इस मंत्र में प्रथम निदिष्ट है ।
ऽ            श्रेवती - चित्रा के ठीक अर्ध समानांतर 180 डिग्री पर स्थित है जिसका देवता पूषा है । नक्षत्र विभाग में अंतिम नक्षत्र होने के कारण इसे मंत्र में विश्ववेदाः (सर्वज्ञान युक्त) कहा गया है ।
ऽ            श्रवण - मध्य से प्रायः चतुर्थांश 90 डिग्री की दूरी पर तीन ताराओं से युक्त है । इसे इस मंत्र में ताक्ष्र्य (गरूण) है ।
ऽ            पुष्य - इसके अर्धांतर पर तथा रेवती से चतुर्थांष 90 डिग्री की दूरी पर पुष्य नक्षत्र है जिसका स्वामी वृहस्पति है जो मंत्र के पाद में निर्दिष्ट हुआ ।
स्वस्तिक का इतना महत्व क्यों ?













विभिन्न धर्मां के उपासना स्थलों के ऊर्जास्तरों का तुलनात्मक अध्ययन में पाया गया कि चर्च में क्राॅस के इर्दगिर्द लगभग 10000 बोविस ऊर्जा, मस्जिदों में इसका स्तर 11000 बोविस रिकार्ड हुआ । शिवमंदिर में यह स्तर 16000 बोविस से अधिक पायी गयी । हिन्दू धर्म के प्रधान चिंह स्वस्तिक में यह ऊर्जा 1000000 (दस लाख) बोविस पायी गयी ।

धर्मग्रंथों की मान्यता है कि सृष्टि की उत्पत्ति ओंकार नाद से हुई है और यह स्वर सूक्ष्म रूप में आज भी संपूर्ण ब्रम्हाण्ड में गुंजित हो रहा है । इसी को प्रारंभ में स्वस्तिक रूप में अंकित किया गया । गणेश पुराण में भी स्वस्तिक, ओंकार और गणपति को एक कहा गया है ।




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