Thursday, 5 June 2014

पपीहा - बारीक ,सुरीली और मीठी आवाज वाला पक्षी

पपीहा - बारीक ,सुरीली और मीठी आवाज वाला पक्षी


पपीहा कीड़े खानेवाला एक पक्षी है जो वसंत और वर्षा में प्रायः आम के पेड़ों पर बैठकर बड़ी सुरीली ध्वनि में बोलता है । पपीहा दक्षिण एशिया में बहुतायत में पाया जाता है । यह अपना घोंसला नहीं बनता है और दूसरे चिड़ियों के घोंसलों में अपने अण्डे देता है । प्रजनन काल में नर तीन स्वर की आवाज दोहराता रहता है । जिसमें दूसरा स्वर सबसे लंबा और ज्यादा तीव्र होता है । यह स्वर धीरे धीरे तेज होते जाते हैं और एकदम बन्द हो जाते हैं और काफी देर तक चलता रहता है , पूरे दिन, शाम को देर तक और सवेरे पौं फअने तक । देश में यह पक्षी कई रंग , रूप और आकार का पाया जाता है । उत्तर भारत में इसका डील प्रायः श्यामा पक्षी के बराबर और रंग हल्का काला या मटमैला होता है । दक्षिण भारत का पपीहा डील में इससे कुछ बड़ा और रंग में चित्रविचित्र होता है । मादा का रंगरूप्ज्ञ प्रायः सर्वत्र एक ही सा होता है । पपीहा पेड़ से नीचे प्रायः बहुत कम उतरता है और उस पर भी इस प्रकार छिपकर बैठा रहता है कि मनुष्य की दृष्टि कदाचित् ही उस पर पड़ती है । इसकी बोली बहुत ही रसमय होती है और उसमें कई स्वरों का समावेश होता है । किसी किसी के मत से इसकी बोली में कोयल की बोली से भी अधिक मिठास है । पपीहा जब बोलता है - ‘‘पी कहाँ ’’ ‘‘पी कहाँ ’’ अर्थात  प्रियतम कहाँ है । कहा जाता है कि यह केवल स्वाती नक्षत्र में होनेवाली वर्षा का ही जल पीता है । इसकी बोली कामोद्दीपक मानी गई है । पपीहा एक मध्य से बड़े आकार का पक्षी होता है जो तकरीबन कबूतर के आकार का होता है इसके पंख पीठ में स्लेटी रंग के होते हैं और पेट में सफेद-भूरी धारियाँ होती हैं पूँछ में चैड़ी धारियाँ होती हैं । नर और मादा दोनों एक जैसे दिखते हैं उनके आँखों के बाहर एक पीला छल्ला होता है । पपीहा पेड़ों में ही रहता है और कभी भी जमीन पर आता है । इसका आवास बाग, बगीचा और अर्ध सदाबहार जंगलों में होता है । पपीहे की आवाज बहुत सुरीली और बारीक होती है । पपीहा वृक्ष के शीर्ष भाग पर बैठकर जोरों से बोलता रहता है अक्सर रातों में भी, खासकर चांदनी रात में । चांदनी रात में तो इसके तमाम रात बोलने के कारण ही अंग्रेजी में इसे मस्तिष्क वर पक्षी (ब्रोन फीवर बर्ड) कहा गया है । तमाम ग्रीष्म और वर्षाकाल यह काट देता है । वर्षा का वास्तविक अंत स्वाति नक्षत्र के व्यतीत होने पर ही होता है और तभी इसका बोलना भी बंद होता है । यही कारण है इस कहावत का कि पपीहे अथवा चातक की प्यास स्वाति जल से ही मिटती है । चातक उन पक्षियों में है जो बसंत नहीं, वर्षाकाल में अपना मुंह खोलता है । मानसूनी हवा का बहना शुरू हुआ नहीं कि चातक आ धमके । चातक पपीहा नहीं है । परिंदे और घरोंदें - ऊंचे पेड़ों पर घोंसला बनाने वाला पपीहा भी घोंसला बनाने की कला में प्रवीण होता है ।





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