Tuesday, 10 June 2014

कबूतर - विलुप्त पक्षी ( संरक्षण एक जरूरत )

 कबूतर - विलुप्त  पक्षी ( संरक्षण एक जरूरत )
कबूतर पूरे विश्व में पाये जाने वाला पक्षी है । कबूतर एक शांत स्वभाव वाला पक्षी   है । कबूतर ठंडे इलाकों और दूरदराज के द्वीपों को छोड़कर लगभग पूरी दुनिया में पाए जाते हैं । भारत में यह सफेद और सलेटी रंग के होते हैं पुराने जमाने में इसका प्रयोग पत्र और चिटिठीयां भेजने के लिये किया जाता था । कबूतर सौम्य, पंखदार, छोटी चोंच वाले पक्षी हैं । जिनकी चैंच और माथे के बीच त्वचा की झिल्ली होती है । सभी कबूतर अपने सिर को आगे पीछे हिलाते हुए इतराई सी चाल चलते हैं । अपनी लंबे पंखों और मजबूत उड़ान मांसपेशियों के कारण ये सशक्त व कुशल उड़ाके होते हैं ।  ये एक सहचर होते हैं इनका जीवन थोड़े दिन के लिए होता है । यह एक नियततापी उड़ने वाला पक्षी है  जिसका शरीर परों से ढका रहता है । मुँह के स्थान पर इसकी छोटी नुकुली चोंच होती है  मुख दो चंचुओं से घिरा एवं जबड़ा दंतहीन होता है । अगले पैर डैनों में  परिवर्तित हो गए हैं पिछले पैर शल्कों से ढँके एवं उँगलियों नखरयुक्त होती हैं । इनमें तीन उँगलियाँ सामने की ओर तथा चैथी उँगली पीछे की ओर रहती है । कबूतर मनुष्य के सम्पर्क में रहना अधिक पसंद करता है ।  कबूतर की लगभग 250 प्रजातियाँ पायी गई हैं । अधिकतर प्रजातियाँ उष्णकटिबंधीय दक्षिण-पूर्व एशिया, आस्टेलिया और पश्चिमी प्रशांत महासागरीय द्वीपों में पाई जाती हैं । झुंडो में रहने वाले ये पक्षी बीज और फलभक्षी होते हैं । साधारणतः हल्के स्लेटी, भूरे और काले रंग के होते हैं और कभी कभी इनके पंखों पर रंग बिंरगे धब्बे पाए जाते हैं । भारत में 35 से अधिक नस्लों के कबूतर मिलते हैं । जिनमें नीला, रोंक, हरा शाही, जंगली और हरा कबूतर हैं ।  हिमालय में हिम कबूतर, तिब्बत का पहाड़ी कबूतर, पर्वतीय क्षेत्र में जंगली कबूतर, निकोबार में पाइड इंपीरियल और पीतवर्णी कबूतर पाया जाता है ।  कबूतर का अपने आहार में अनाज, दालें , फल, कलियां और पत्तियां ,घोंघे, कीट आदि लेते हैं । ये रेत, चिकनी मिटटी, चूना और बजरी भी खा लेते हैं । मादा कबूतर साल में 2 या 3 बार प्रजनन करती है जिससे एक बार में 2 चमकीले सफेद अंडे देती है । नर और मादा कबूतर दोनों अंडे सेने में सहायता करते हैं मादा आमतौर पर रात में अंडे सेती है और   दिन में नर अडें सेता है । अंडों से चूजे निकलने में 14 से 19 दिन लगते हैं इसके बाद भी 12 से 18 दिनों तक घोंसले में ही रखकर चूजों की सेवा की जाती है । सभी कबूतर अपने चूजों को अपना दूध पिलाते हैं जो प्रोलेक्टिन हाॅमोंन की उत्तेजक प्रक्रिया से बना गाढा द्रव होता है । चूजे अपने अभिभावकों के गले में चैच डालकर यह दूध पीते हैं ।  कबूतर की आवाज गुटर गुं  गुर्राहट सिसकारी और सीटी की ध्वनि जैसी होती है । कबूतर वृक्षों या भूमि पर निवास करते हैं और इनमें से कई कबूतर झुंडों में रहते हैं । कबूतर एकसहचरी होते हैं । वे छेदों व ऊंची चटटानों की गुफाओं में टहनियों और भूसे से कमजोर व बेतरतीब घोंसले बनाते हैं ।  पालतू कबूतर पक्के कुंओं खाले या आबाद भवनों, पुलों की मेहराबों दीवार के छेदों , छज्जों और अन्य सुरक्षित स्थानों पर प्रजनन करते हैं । महत्व - कबूतर को शान्ति का प्रतीक और सौभाग्य का सूचक माना जाता है । इनका आर्थिक महत्व भी है ये खरपतवार के बीजों को नाश करते हैं । कबूतर धार्मिक संस्थानों , समुद्र तटों और नदियों के किनारे बने कबूतरखानों में इन्हें दाना खिलाया जाता है । कबूतर का मांस स्वादिष्ट एवं खाद्य पदार्थ है । इनके बीट का इस्तेमाल सज्जी खार बनाने में होता है । कबूतर की कई प्रजातियाँ प्रब्रजक और खानाबदोश होती है । कबूतरों के घर वापस लौटने की प्रवृति का उपयोग बेतार, दूरसंचार यंत्रों के आगमन के पहले संदेशों के आदान-प्रदान हेतु होता था । संदेशवाहक कबूतर एक दिन में 800-1000 किलोमीटर की दूरी तय कर लेता है ।  कबूतरों की उड़ान - कबूतरों को उड़ाके और प्रतियोगी कबूतर भी कहा जाता है । इनकी उड़ान द्रुत और शक्तिशाली होती है । इनकी गति 185 किलोमीटर तक आंकी गई है । कबूतर गणित में होशियार होते हैं । संख्याओं को समझने में ये बंदरों जितने ही समझदार होते हैं । कबूतरों में शानदार गणितीय क्षमता होती है और ये नंबर जैसी चीजों तथा क्रम व्यवस्था को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं । पन्ना कबूतर - भारतीय उपमहाद्वीप, थाइलैंड, मलेशिया आस्टेलिया में पाये जाने वाला कबूतर का एक प्रकार है इसे हरा कबूतर या हरित पक्ष कबूतर के नाम से भी जाना जाता है । यह भारत के तमिलनाडु राज्य का राज्यपक्षी है । यह डंडियों से पेड़ों पर अनगढ़ सा घौंसला बनाता है और एक बार में 2 अंडे ( मलाई रंग ) देता है । ये तेजी से और तुरंत उड़ान भरते हैं । इनका स्वर धीमी कोमल दुखभरी सी कूक जैसा होता है जिसमें ये शांत से शुरू करके उठाते हुए छः से सात बार कूकते हैं । ये अनुनासिक ‘‘ हु-हु-हूँ ’’ की आवाज से करते हैं । संरक्षण - कबूतरों को उनके मांस के लिए मारा जाता हैं । कई सुंदर प्रजातियों को पकड़कर बेचा जाता है । कई गैर सरकारी संगठन कबूतरों और उनके पर्यावास की रक्षा में सक्रिय हैं । आज जरूरत हैं कि हम इन पक्षियों की रक्षा करें इन्हें इतिहास के पन्नों मंे संग्रहित न होने दें ।















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